सामाजिक क्रांति के अद्वितीय नायक फुले


   इतिहासकारों की क्रूरता ने इस महान विभूति के क्रांति को बर्फ की सिल्ली के नीचे दबाने के कई कुचक्र किये परंतु सूर्य की किरणें बादलों के प्रतिरोध से कहां घबराती हैं! बादलों के सीने को चीरते हुए मानव व अन्य जीवों के कल्याणार्थ व्यग्र सूर्य की किरणें धरती से आ टकराती ही है। महात्मा ज्योतिबा फुले के ज्ञान की तेज व कर्मठता की उष्णता ने दासता की बेड़ियों में कराह रही कौमों को भरपूर ऑक्सीजन दिया। शूद्रों की शिक्षा व समानता की वर्जनाओं से वेदित स्थिति फुले के अंतर्मन को हिला कर रख देती थी। अशिक्षित वह पूरी तरह से धर्मभीरु समाज  को समझाना बड़ा मुश्किल कार्य था, परंतु ज्योतिबा फुले की तर्कशक्ति अकाट्य थी:-
          वह जब भी लोगों को समझाने निकलते उनके सामने दो प्रश्न क्षण-प्रतिक्षण उठते; पहला:- यह कि लोग कहते कि गरीब होना मेरे भाग्य में है। ब्रह्मा के विराट पुरुष रूप ने विभिन्न वर्णों को अपने भिन्न-भिन्न अंगों से पैदा किया है। ब्राह्मणों को मुख, क्षत्रियों को भुजा, वैश्योः को उदर व शूद्रों को पैर से पैदा किया है। फूले उन्हीं लोगों से पूछते:कि ब्रह्मा का विराट पुरुष रूप स्त्री या पुरुष का था, या वृक्षों की तरह द्विलिंगी था? आगे पूछते हैं  कि; क्या वाकई ब्राह्मा ने ही इन वर्णों को अपने शरीर से पैदा किया है, यदि हां तो  इस प्रयोजन के लिए उन्हें गर्भधारण करना पड़ा होगा? गर्भ धारण करने से पूर्व मासिक धर्म के 4 दिन की पीड़ा भी सहनी पड़ी होगी? उस 4 दिन की पीड़ा के रक्त स्राव को कपड़ा लगाकर संतुलित करते थे या पेशवाओं की औरतों की तरह राख लगाकर? दूसरा प्रश्न;ब्रह्मा ने ही हर वर्णों के काम निर्धारित किए हैं। इस टिप्पणी पर फुले बड़े प्यार से जवाब देते हुए कहते: इसे आप लोगों ने गलत तरीके से समझा है। अपनी समझ का तरीका बदलें; सरल भाषा में समझें: जैसे बाल काटना नाई का धर्म नहीं धंधा है, चमड़े की सिलाई करना मोची का धर्म नहीं धंधा है, उसी तरह पूजा-पाठ कराना ब्राह्मण का धर्म नही धंधा है।
     महात्मा ज्योतिबा फुले महिलाओं एवं लड़कियों के शिक्षा पर अधिक बल देते थे, उनका मत था कि लड़कियां शिक्षित हो गई तब परिवार ही नहीं परिवार की तीन पीढ़ियां शिक्षित हो जाती है। फुले जी की जीवनी पर संक्षेप में प्रकाश डालना अभीष्ट होगा। फुले जी का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के पुणे जिले के खनवाडी गांव में हुआ था। बचपन में इन्होंने मराठी में पढ़ाई शुरू की और बचपन के 13वें वर्ष में ही इनके माता-पिता ने इनकी शादी सावित्रीबाई फुले से 1840 में कर दी। सामाजिक असमानता के खिलाफ इनके मन में विद्रोह क्यों उठा?कहा जाता है: कि यह अपने बचपन के सहपाठी एक ब्राह्मण की बारात में नए कपड़े पहन कर शामिल होने गए थे ब्राह्मणों ने आपस में कानाफूसी कि यह कौन है? तब किसी ने बताया:कि यह गोविंद का लड़का है, फिर क्या था लगे ब्राह्मण पिटाई करने.... उनके मुताबिक शूद्रों को नए कपड़े पहनने का अधिकार नहीं था।
    इस घटना ने फुले को शिक्षा ग्रहण करने के लिए विवश कर दिया। 21 वर्ष की उम्र में इन्होंने सातवीं की परीक्षा अंग्रेजी माध्यम से उत्तीर्ण की। *टाॅमस पैनी की पुस्तक राइट ऑफ मैन* (पुरुष के अधिकार) ने इन्हें न केवल एक बेहतरीन विद्यार्थी बनाया अपितु पुरातन की निष्ठुर सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए उद्वेलित भी किया। इनके पिता बार-बार जोर देते कि तुम पुश्तैनी धंधा अपना लो, परन्तु फुले कहां मानने वाले थे! शिक्षण कार्य में सहयोग के लिए काफी तलाश के बाद भी जब कोई नहीं मिला जो उनके प्रयासों में साथ देता तब फुले ने अपनी पत्नी को पढ़ाना शुरू किया । पत्नी को पढ़ाने की कृत्य ने सभी ब्राह्मणों व पेशवाओं को आगबबूला कर दिया। ब्राह्मणों के बढ़ते दबाव के आगे गोविंद फुले का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने ज्योतिबा फुले पति-पत्नी को घर से बाहर निकाल दिया।
       छत से महरूम पति-पत्नी की समस्याएं बढ़ गई आखिर इनके तारणहार के रूप में मियां उस्मान शेख़ आगे आए। रहने की जगह के साथ-साथ सावित्रीबाई फुले का साथ देने के लिए अपनी बहन फातिमा शेख को भी लगाया । 1848 में उस्मान शेख़ ने अपना घर स्कूल खोलने के लिए व बहन फातिमा को पढ़ाने के लिए ज्योतिबा फुले को समर्पित कर दिया। 1848 में महिलाओं की शिक्षा के लिए पहला स्कूल खुला। ब्राह्मणों ने जमकर उत्पात मचाया। सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाने लगती तब वह एक धोती पहन कर वह एक अलग से ले जाती कारण: ब्राह्मण उनके ऊपर कीचड़ व गोबर फेंकते कभी कभार पत्थर भी फेंकते वह घायल भी हो जाती थी। स्कूल पहुंचकर वह गंदी धोती बदलकर साफ धोती पहन लेती और आते समय फिर वही गंदी धोती पहनकर निकलती। सोचिए कितनी घिनौनी सामाजिक व्यवस्था रही होगी।
       जहां एक ओर ज्योतिबा फूले लोगों को सामजिक रूप से जागरूक करने के अभियान में लगे थे वही सावित्रीबाई लड़कियों को शिक्षित कर उनके प्रयास को बल प्रदान कर रही थी। सामाजिक क्रांति के लिए 1873 में ज्योतिबा फूले ने *सत्यशोधक समाज* सामाजिक संगठन की स्थापना की। 1888 में मुंबई की एक जनसभा में विठ्ठलराव कृष्णा जी वंडेकर ने ज्योतिबा फुले को महात्मा की उपाधि दी। फुले ने अपने जीवन की सीख को अगली पीढ़ियों में संचालित करने की मंशा से *गुलामगिरी, तृतीय रत्न, किसान का कोड़ा, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखाड़ा, अछूत की कैफियत इत्यादि पुस्तकों का लेखन किया। दीनबंधु पत्रिका ने उनके सामाजिक आंदोलन को खूब प्रचारित किया।
    एक अहम घटना उद्धृत करना प्रासंगिक है ताकि महिलाओं के प्रति उनकी सोच उजागर हो सके! फुले महिलाओं के समान अधिकारों के ध्वजावाहक थे। उनके कुछ साथियों को एहसास हो गया था कि सावित्रीबाई फूले मां नहीं बन सकती हैं जब उन लोगों ने फुले को मशवरा दिया कि दूसरी शादी कर ले। फुले ने साफ तौर पर मना कर दिया और कहा कि जब एक औरत मां नहीं बन सकती तब पुरुष दूसरी शादी कर ले लेकिन जब एक पुरुष बाप बनने योग्य न हो तब क्या महिलाओं के लिए यह आजादी होगी कि वह दूसरी शादी कर सकती हैं?
 सामाजिक क्रांति के अद्वितीय नायक को अदरांजलि!
गौतम राणे सागर ।

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