आधुनिक भारत के जन्मदाता: डॉक्टर अंबेडकर


   यूं तो बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।  हम चर्चा करेंगे उनके विधि पांडित्य पर। संविधान सभा में महान विभूतियों द्वारा संविधान निर्माण के तौर-तरीकों, बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर के अथक प्रयासों व विधि पर उनकी गहरी पकड़ ने संविधान प्रारूप समिति को अपना प्रशंसक तो बनाया ही, साथ ही साथ संविधान सभा के समस्त सदस्यों (आपसी अंतर्द्वंद्व होने के बावजूद) को भूरि-भूरि प्रशंसा करने पर मजबूर कर दिया। प्रसंग की शुरुआत डॉक्टर अंबेडकर लेखन व व्याख्यान के संकलन भाग संख्या 13 में डॉक्टर के. आर.नारायण उपराष्ट्रपति,तत्पश्चात राष्ट्रपति द्वारा प्राक्कथन
 में उकेरे गए शब्दों व विधिशास्त्र के अन्य विशेषज्ञों के उद्धरणों के साथ प्रस्तुति समीचीन होगा ।
    टी टी कृष्णमचारी संविधान निर्मात्री समिति के सदस्य के  संविधान सभा में दिए गए व्याख्यान; संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा:- कि शायद आप लोगों को ज्ञात है कि संविधान निर्मात्री समिति में आपने 7 सदस्यों को नामित किया है। एक ने त्यागपत्र दे दिया जिनके स्थान पर दूसरे को नामित किया गया। एक सदस्य की मृत्यु हो गई जिनका स्थान रिक्त रहा। एक सदस्य अमेरिका में थे और उनका स्थान भी खाली ही रहा । एक दूसरे सदस्य अपने राज्य के कारणों में इतने व्यस्त रहे कि संविधान सभा में उनका सहयोग भी शून्य ही रहा। एक या दो सदस्य दिल्ली से बाहर रहे,उनके स्वास्थ्य ने बैठकों में उपस्थित होने की अनुमति नही दी । हुआ यूं कि इन परिस्थितियों में संविधान लिखने के समस्त जिम्मेदारी डॉ अंबेडकर पर आन पड़ी। हमें तनिक भी संशय नहीं है कि संविधान लिखने में जो प्रशंसनीय कार्य डॉक्टर अंबेडकर ने किया है हम सभी को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। अपने स्वास्थ्य की चिंता किए बिना ही डॉक्टर अंबेडकर ने इस दुस्साध्य कार्य को उसी रूप में अद्वितीय विद्वता प्रदर्शित कर संपादित किया जैसा डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी ने सोचा था ।उनके लेखन व प्रबोधन ने संविधान में सिद्धांत और अभिप्राय को बड़े ही कलात्मक ढंग से दूधिया प्रकाश पुंज की शीतलता में  प्रस्तुत किया है। कुछ प्राविधान ऐसे है जो लोगों के अधिकार व  स्वतंत्रता को करीने से संवारते है,जीवन व राष्ट्र के प्रति  जिम्मेदारियों को मधुर सुर से नवाजते हैं। इसे पढ़ने से ही ऐसा अनुभव होता है कि हम सब संविधान का स्वरूप प्रकट करने में सामने उपस्थित है।
       डॉ के आर नारायणन ने कहा:- डॉक्टर अंबेडकर ने राजनीति के लिए उपयोगी व आवश्यक पहलुओं पर पूर्वानुमान लगा लिया था । उनके शब्दों ने संविधान के प्रावधानो,संदर्भों पर वृहद प्रकाश डालते हुए सभी को संतुष्ट करने का भरपूर प्रयास किया है। जिसकी समय-समय पर न्यायालयों द्वारा व्याख्या व पुर्नव्याख्या की जा रही है। इसमें मुफीद चेतावनी सम्मिलित है; हमें ध्यान देना होगा कि यदि हम संविधान के ढांचे और आत्मा को सुरक्षित रखना चाहते हैं, तब हमें राष्ट्र की एकता के साथ लोगों की भलाई व प्रगति का भी ध्यान रखना चाहिए। यही संविधान का मूल मंत्र है।
   पंडित जवाहरलाल नेहरू ने निरूपित करते हुए कहा:- यह डॉक्टर अंबेडकर हिंदू समाज के समस्त उत्पीड़न के प्रतीक हैं। डॉक्टर अंबेडकर वास्तव में सभी पिछड़े, दलित व प्रवंचित समाज के विद्रोह के अगुआ थे। वह आज करोड़ों लोगों को सामाजिक और राजनीतिक क्रिया के लिए प्रोत्साहित करते हैं।  वह लोकतंत्र के भक्त थे। मानते थे कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र राजनीतिक लोकतंत्र की मांस-तंतु एवं रेशा है। उन्होंने संविधान सभा को चेताया था कि वर्ग और वर्ग,लिंग और लिंग के बीच समानता की तिलांजलि (जो के हिंदू धर्म की आत्मा है) को छेड़े बगैर संविधान बनाने का मतलब सिर्फ दिखावा होगा। इससे आर्थिक तौर पर बड़ी समस्या खड़ी होगी। यदि स्पष्ट कहा जाए तो यह कहा जा सकता है; कि हमारा यह प्रयास ठीक उसी तरह है जैसे; गोबर के ढेर पर आलीशान महल खड़ा करने का प्रयास होता है। यह स्मृति बड़ी ही मजेदार है कि डॉक्टर अंबेडकर ने लोकतंत्र की व्याख्या से गुटों को रक्त रंजित किये बिना ही सामाजिक और आर्थिक जीवन में  क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया। यद्यपि वह एक क्रांतिकारी थे वंचितों के अधिकारों से समझौता न करने वाले संविधान विशेषज्ञ भी । उन्होंने इस वर्ग के अधिकारों के लिए संविधान में बदलाव की अडिगता से वकालत भी की। उनकी दृष्टि में संविधान के नये तरीके से कट्टर लोग प्रभावित होंगे; वह बार-बार जोर देते थे कि संविधान में नैतिकता की महत्वपूर्ण भूमिका है। सर्वोच्चता से समाज में नैतिकता प्रसारित किया जाना चाहिए। हमें ज्ञात है कि यह प्रचलित प्रवृति के अनुसार स्वभाविक नहीं है, परंतु यही प्रवृति व भाव वस्तुतः सभी नागरिकों में भरा जाना चाहिए । हमें एहसास है कि हमारे लोगों को भी इसे समझना चाहिए। हर नागरिक को व्यवहार में संवैधानिक नैतिकता के प्रति समर्पण होना चाहिए। संविधान में  *अहिंसक तरीके से सत्याग्रह को* कानूनी तौर पर सम्मिलित किया,ताकि लोकतांत्रिक भारत में असहमति के लिए यह रास्ता अपनाया जा सके। उनका दृष्टिकोण था कि लोकतंत्र में बुद्ध का मध्यम मार्ग ही बेहतरीन और सुरक्षित तरीका है। उनके दृष्टि में उत्पीड़ित समाज व अल्पसंख्यक के विकास का विशेष ध्यान देना होगा। एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में उन्होंने कहा था: कि इस देश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों ने गलत तरीके से सोचना शुरू किया है या गलत अवधारणा बना ली है । बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के अस्तित्व को नकारना अनुचित है तो अल्पसंख्यकों का भी ऐसा दृष्टिकोण उचित नहीं है। हमें एक ऐसा समाधान ढूंढना चाहिए जहां दोनों की समस्याओं का समाधान हो सके! अल्पसंख्यकों के लिए  ऐसे परिवेश का निर्माण होना चाहिए जहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक दोनों एक दूसरे में घुल-मिल सके! उनका मत था कि यदि दोनों वर्गों ने नैतिकता प्रदर्शित की तो यह उद्देश्य निश्चित तौर पर फलीभूत होगा।
     डॉक्टर अंबेडकर को संविधान में पूर्ण विश्वास था। इसके सहयोग से वह पुरातन भारत को आधुनिक भारत बनाना चाहते थे। उन्होंने कहा: कि मुझे महसूस होता है कि संविधान पूरी तरह से कार्यरूप में परिवर्तित किया जा सकता है। यह जितना लचीला है उतना ही कठोर भी, जो देश को शांति व युद्ध के समय एकत्रित रख सकता है। यदि मैं स्वतंत्रता से कहूं; तो यह कह सकता हूं कि यदि कोई चीज संविधान में अनर्थकारी सिद्ध होती है तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह संविधान बुरा है, बल्कि जिनके हाथों में संविधान के अनुसार देश चलाने की जिम्मेदारी है, वही लोग दुष्ट है। भविष्य के भारत देश व इसके नागरिकों में आपसी सद्भावना के प्रति उन्हें उच्च कोटि का विश्वास था। उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि हम जानते हैं कि हम राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक रूप से बंटे हुए हैं। हम युद्धरत गुट है। मुझे यह कहने में एतराज नहीं है कि मैं भी इन्हीं गुटों में से एक गुट का सदस्य हूँ । मै पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि यह गुटों का देश एक न एक दिन एकीकृत भारत जरूर बनेगा। यदि समस्त देशवासियों में नैतिकता का समावेश हो गया तब दुनिया की कोई ताकत इसे एक होने से नहीं रोक पाएंगी। इस अध्याय ने डॉक्टर अंबेडकर को पांडित्य की अनछुए ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया।
गौतम राणे सागर ।

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