- प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर सहित केंद्रीय मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने शोक व्यक्त कर श्रद्धांजलि दी।
- दिव्य दृष्टि का था वरदान, 1969 से 2016 तक परमात्मा के संदेशवाहक की निभाई भूमिका
- एक साल पहले राजयोगिनी दादी जानकी जी के निधन के बाद नियुक्त की गई थीं ब्रह्माकुमारीज़ की मुख्य प्रशासिका
- आठ साल की उम्र में ब्रह्मा बाबा द्वारा खोले गए बोर्डिंग स्कूल में लिया था प्रवेश
- वर्ष 1928 में कराची में हुआ था जन्म, मात्र चौथी कक्षा तक की थी पढ़ाई
- हिंदी-अंग्रेजी और गुजराती भाषा का था ज्ञान
- विश्व के कई देशों में जाकर दिया आध्यात्मिकता का संदेश
- नार्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय ने 2017 में डॉक्टर ऑफ लिटरेचर की उपाधि से किया था विभूषित
11 मार्च, आबू रोड(राजस्थान)। प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की मुखिया राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनी का गुरुवार सुबह 10.30 बजे देवलोकगमन हो गया। 93 वर्ष की आयु में उन्होंने मुम्बई के सैफी हास्पिटल में अंतिम सांस ली। उन्हें दिव्य बुद्धि का वरदान प्राप्त था। एयर एंबुलेंस से उनके पार्थिव शरीर को गुरुवार शाम को शांतिवन लाया गया। उनके अंतिम दर्शन के लिए पार्थिव देह को शुक्रवार को शांतिवन में रखा जाएगा। अंतिम संस्कार संस्थान के शांतिवन मुख्यालय में 13 मार्च को किया जाएगा। दादी जी के निधन पर उपराष्ट्पति से लेकर केंद्रीय मंत्री, लोकसभा स्पीकर सहित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने शोक व्यक्त करते हुए भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी है।
ब्रह्माकुमारीज के सूचना निदेशक बीके करुणा ने बताया कि राजयोगिनी दादी हृदय मोहिनी जी का स्वास्थ्य कुछ समय से ठीक नहीं था। मुम्बई के सैफी हॉस्पिटल में आपका इलाज चल रहा था। दादीजी की निधन की सूचना पर संस्थान के भारत सहित विश्व के 140 देशों में स्थित सेवाकेन्द्रों पर शोक की लहर दौड़ गई। ब्रह्माकुमारीज मुख्यालय के आगामी कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया गया है।
वर्ष 1928 में कराची में हुआ था जन्म-
राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनीजी के बचपन का नाम शोभा था। उनका जन्म वर्ष 1928 में कराची में हुआ था। आप जब 8 वर्ष की थी तब संस्था के साकार संस्थापक ब्रह्मा बाबा द्वारा खोले गए ओम निवास बोर्डिंग स्कूल में दाखिला लिया। यहां आपने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। स्कूल में बाबा और मम्मा (संस्थान की प्रथम मुख्य प्रशासिका) के स्नेह, प्यार और दुलार ने इतना प्रभावित किया कि छोटी सी उम्र में ही अपना जीवन उनके समान बनाने का निश्चय किया। आपकी लौकिक मां भक्ति भाव से परिपूर्ण थीं।
मात्र चौथी कक्षा तक की थी पढ़ाई-
दादी हृदयमोहिनी ने मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी। लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि होने से आप जब भी ध्यान में बैठतीं तो शुरुआत के समय से ही दिव्य अनुभूतियां होने लगीं। यहां तक कि आपको कई बार ध्यान के दौरान दिव्य आत्माओं के साक्षात्कार हुए, जिनका जिक्र उन्होंने ध्यान के बाद ब्रह्मा बाबा और अपनी साथी बहनों से भी किया था।
शांत, गंभीर और गहन व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति-
दादी हृदयमोहिनी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनका गंभीर व्यक्तित्व। बचपन में जहां अन्य बच्चे स्कूल में शरारतें करते और खेल-कूद में दिलचस्पी के साथ भाग लेते थे, वहीं आप गहन चिंतन की मुद्रा में रहतीं। धीरे-धीरे आपको दिव्य लोक की अनुभूति होने लगी। आपकी बुद्धि की लाइन इतनी साफ और स्पष्ट थी कि ध्यान में जब आप खुद को आत्मा समझकर परमात्मा का ध्यान करतीं तो उन्हें यह आभास ही नहीं रहता था कि वह इस जमीन पर हैं।
सादगी, सरलता और सौम्यता की थीं मिसाल-
दादीजी का पूरा जीवन सादगी, सरलता और सौम्यता की मिसाल रहा। बचपन से ही विशेष योग-साधना के चलते दादी का व्यक्तित्व इतना दिव्य हो गया था कि उनके संपर्क में आने वाले लोगों को उनकी तपस्या और साधना की अनुभूति होती थी। उनके चेहरे पर तेज का आभामंडल उनकी तपस्या की कहानीं साफ बयां करता था।
1969 में ब्रह्मा बाबा के निधन के बाद बनीं परमात्म दूत-
18 जनवरी 1969 में संस्था के साकार संस्थापक ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के बाद परमात्म आदेशानुसार दादी हृदयमोहिनी जी ने परमात्मा का संदेशवाहक और दूत बनकर लोगों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान और दिव्य प्रेरणा देने की भूमिका निभाई। दादीजी ने 2016 तक संस्थान के मुख्यालय माउंट आबू में हर वर्ष आने वाले लाखों भाई-बहनें के लिए परमात्मा का दिव्य संदेश देकर योग-तपस्या बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। एक बार चर्चा के दौरान दादीजी ने बताया था कि जब मैं मन की शक्ति से वतन में जाती हूं तो आत्मा तो शरीर में रहती है लेकिन मुझे इस शरीर का भान नहीं रहता है। उस दौरान मेरे द्वारा जो वचन उच्चारित होते हैं वह भी मुझे याद नहीं रहते हैं।
बाबा से दादीजी को हुए थे साक्षात्कार-
एक साक्षात्कार के दौरान दादीजी ने बताया था कि जब वह 9 वर्ष की थीं और अपने मामा के यहां गईं थीं, तभी उनके घर ब्रह्मा बाबा का आना हुआ। यहां बाबा से उन्हें दिव्य साक्षात्कार हुआ था। बाबा हम बच्चों का इतना ख्याल रखते थे कि खुद अपने हाथ से दूध में काजू-बादाम डालकर खिलाते थे। बाबा का प्यार, स्नेह इतना मिला कि कभी भी लौकिक मां-बाप की याद नहीं आई।
14 साल तक हैदराबाद में रहकर की कठिन साधना-
दादी हृदयमोहिनीजी ने 14 वर्ष तक बाबा के सानिध्य में रहकर कठिन योग-साधना की। इन वर्षों में खाने-पीने को छोडक़र दिन-रात योग साधना में लगी रहती थीं। इसके साथ ही बाबा एक-एक सप्ताह का मौन कराते थे। तभी से दादी का स्वभाव बन गया था कि जितना काम हो उतना ही बात करती थीं। अंत समय तक वह ज्यादा तर मौन में रहीं।
नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय ने प्रदान की डिग्री-
दादीजी को नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय, बारीपाड़ा ने डी. लिट (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की उपाधि से विभूषित किया था। दादी को यह उपाधि प्रभु के संदेशवाहक के रूप में लोगों में आध्यात्मिकता का प्रचार-प्रसार करने और समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान पर प्रदान की गई। संस्था की 80वीं वर्षगांठ पर मुख्यालय माउण्ट आबू, आबू रोड के शांतिवन में आयोजित अंतरराष्ट्रीय महासम्मेलन एवं सांस्कृतिक महोत्सव में 28 मार्च 2017 को नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. प्रफुल्ल कुमार मिश्रा ने उन्हें उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने दादी के कार्यों की सराहना करते हुए इसे गौरव का विषय बताया था। कुलपति मिश्रा ने कहा कि मैं आज यह डिग्री दादी को देते हुए बहुत ही गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। संस्था विश्व शांति, प्रेम, भाईचारा और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में जो कार्य कर रही है वह अनुपम उदाहरण है।
दादी जानकी के निधन के बाद बनीं थीं मुख्य प्रशासिका-
पिछले साल 27 मार्च 2020 में संस्थान की पूर्व मुख्य प्रशासिका 104 वर्षीय राजयोगिनी दादी जानकी जी के निधन के बाद आपको संस्थान की मुख्य प्रशासिका नियुक्त किया गया था। अस्वस्थ होने के बाद भी आपको दिन-रात लोगों का कल्याण करने की भावना लगी रहती थी। दादीजी मुंबई से ही संस्थान की गतिविधियों का सारा समाचार लेतीं और समय प्रति समय निर्देशन देतीं।
दादीजी को कभी हलचल में व उदास नहीं देखा-
दादी हृदयमोहिनीजी की निजी सचिव ब्रह्माकुमारी नीलू बहन ने बताया कि मैं खुद को भाग्यशाली समझती हूं कि मुझे बचपन से ही दादीजी के अंग-संग रहने का सौभाग्य मिला। दादीजी हॉस्पिटल में भर्ती होने के बाद भी कभी उन्हें मन से विचलित या परेशान होते नहीं देखा। बीमारी की स्थिति में भी उनका चेहना और मन सदा परमात्मा के ध्यान में लगा रहता था।
प्रात: काल से शुरू होता था ध्यान साधना का दौर-
ब्रह्माकुमारी नीलू बहन ने बताया कि दादीजी हमेशा तीन बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाती थीं। इसके साथ ही उनकी दिनचर्या की शुरुआत साधना के साथ होती थी। यहां तक कि चलते-फिरते, खाते-पीते ईश्वर के ध्यान में मग्न रहतीं।
विश्वभर के सेवाकेंद्रों पर साधना का दौर जारी-
दादीजी के निधन की सूचना के बाद संस्थान के विश्वभर में स्थित सेवाकेन्द्रों पर साधना का दौर शुरू हो गया है। संस्थान से जुड़े बीके भाई- बहनें दादीजी के निमित्त विशेष योग साधना में जुट गए हैं।
0 टिप्पणियाँ