प्रदीप सारंग - कोविड 19 की दूसरी लहर जोरों का तूफान मचाये हुए है। आम जन में डर का वातावरण बनता जा रहा है। सामान्य दर्शन है कि समस्त सृष्टि का संचालन दण्ड और पुरस्कार यानी डर और लालच के सिद्धांत के आधार पर हो रहा है। ये डर भी जरूरी है किन्तु डर से उत्पन्न प्रभाव क्या होगा ये हमारी खुद के जीवन कौशल पर निर्भर करेगा। मनोविज्ञान बताता है कि डर जाने वाले व्यक्ति की इम्यूनिटी कम हो जाती है लेकिन एक पहलू ये भी है कि बिना डरे हम सावधानी या सतर्कता भी तो नहीं बरतते हैं। हम जिस प्रकार की आदत और सोच को धारण किये हुए हैं वैसे ही प्रभाव उत्पन्न होंगे।
स्वर्ग और नर्क भी पुरस्कार व दण्ड ही है। देश के संचालन में भी अच्छा कार्य करने वालों को पुरस्कृत तथा गलत कार्य करने वालों को दण्डित किया जाता है। दण्ड व पुरस्कार यानी डर व लालच के बिना किसी भी व्यवस्था का संचालन असम्भव है।
डर की उपस्थिति से ही लोग गलत कर्म, आदत में प्रवृत्त होने से बचते हैं। अंग्रेजी कहावत भी है कि- स्पेयर द रॉड, स्प्वायल द चाइल्ड। यानी डण्डे को अगर फालतू का समझा तो बच्चा बर्बाद। यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि बच्चे के मन मे डर बैठाने की आवश्यकता नहीं वरन डर को एक सुधारात्मक हथियार के रूप में उपयोग करने की बात है। इन सब तथ्यों से एक बात सिद्ध होती है कि स्वस्थ समाज के निर्माण में अथवा किसी भी व्यवस्था के संचालन हेतु डर की उपयोगिता भी है और जरूरी भी। एक सिद्धांत ये भी है कि डरने की जरूरत उसको पड़ती है जो गलतियाँ करता है। गलती करना यानी घर परिवार, विद्यालय, कार्यालय, समाज, संविधान इत्यादि के प्रोटोकॉल के पालन में लापरवाही करना है। किसी स्थान विशेष, परिस्थिति विशेष या समय विशेष के लिए जारी प्रोटोकॉल अनजाने तोड़ना ही लापरवाही है, जानबूझ कर तोड़ना गलती है। सृष्टि के नियम कानून को तोड़ना तो मनुष्य द्वारा घोर लापरवाही और गलती है। लापरवाही और मनमानी छोड़ देने का सबक सिखा रहा है ये कोरोना।
जो अपनी लापरवाहियों को जीत चुका है, मनमानी पर विजय प्राप्त कर चुका है उसके अन्दर फोबिया ( डर को लेकर भ्रान्ति अथवा गहरी काल्पनिक चिन्ता) पनपने का सवाल ही नहीं। फोबिया एक प्रकार की मनः स्थिति है जो निराधार होती है किन्तु मन मस्तिष्क एक "स्वकाल्पनिक भ्रान्ति" के जबरदस्त प्रभाव में आ जाता है। किसी खतरे की उपस्थिति के एहसास से चिंता का उत्पन्न हो जाना जो अनावश्यक है। यहाँ फोबिया की स्थिति तक जाने से पहले लापरवाहियों व मनमानियों में सुधार की आवश्यकता है। डर की उपस्थिति से जिनमें संघर्ष की प्रवृत्ति होती है उनके मस्तिष्क क्रियाशील हो उठते हैं बचाव के उपाय खोजने में और जिनमें संघर्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है उनके मस्तिष्क निराधार चिन्ता अथवा "स्वकाल्पनिक भ्रान्ति" वश फोबिया के शिकार बन जाते हैं।
इसीप्रकार कोविड-19 के संदर्भ में सरकार द्वारा जारी प्रोटोकॉल के पालन में लापरवाही करना भी तो गलती है। जो लापरवाही यानी गलती न करने के प्रति पूरी तरह सचेत रहे उसको डरने की जरूरत ही नहीं। मेरे कहने का आशय ये है कि यदि कमजोर इच्छाशक्ति से लड़ लिया यानी मजबूत इच्छाशक्ति से अपनी कमजोरियों से लड़ लिया जाए तो कोरोना से लड़ना ही न पड़ेगा क्योंकि कोरोना संक्रमण सिर्फ अज्ञानता व लापरवाही का परिणाम है।
भयावह ये है कि लोग गलतियाँ भी करते हैं और उन्हें अपनी गलतियों का एहसास तक नहीं रहता है। ऐसा दो करणों से होता है एक ये कि उनके अन्दर अज्ञान रहता है। दूसरा ये कि उन्हें बचकानी और मनमानी करने की आदत रहती है। ये आदत बचपन में ही पालन पोषण के गलत तौर-तरीकों के कारण बन जाया करती हैं जो जीवनपर्यन्त साथ रहकर समय समय पर जाने-अनजाने गलतियाँ करने को मजबूर रहते हैं। दरअसल मामला संस्कारों का है। शिक्षा मतलब सिर्फ ज्ञान ही समझ लिया गया जबकि ज्ञान के साथ ही साथ संस्कार भी चाहिए। कुछ लोग दूसरों की सुख सुविधा की अपेक्षा अपने सुख सुविधा को प्राथमिकता देते हैं ऐसे लोगों में मनमानी करने की आदत बन जाया करती है इस प्रकार के लोग देश समाज संस्था परिवार के नियम कानून को स्वीकार न करके निजी सुख सुविधा का विशेष ध्यान रखते हैं। नियम कानून से आँख मिचौली भी ऐसे लोग ही करते हैं। वहीं कुछ लोग दूसरों की सुख सुविधा का भी उतना ही ख्याल रखते हैं जितना खुद की सुख सुविधा का, ऐसे लोग नियम कानून इत्यादि को स्वीकार करते हैं और पालन की कोशिश करते हैं। तीसरे तरह के कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो दूसरों की सुख सुविधा के लिए अपनी सुख सुविधा को तरजीह नहीं देते हैं बल्कि दूसरों को सुख सुविधा पहुँचाकर ही खुद सुख का एहसास करते हैं। ऐसे लोगों की गणना समाज सेवी, समाज सुधारक इत्यादि की श्रेणी में होती है। ऐसे लोग नियम कानून का हूबहू पालन की कोशिश करते हैं।
इसप्रकार कोरोना की जंग वास्तव में खुद के अन्दर की जंग है। खुद के अन्दर बदलाव लाये बिना कोरोना से जंग आसान नहीं। अपनी आदतों अपनी लापरवाहियों पर गौर करके कोविड प्रोटोकॉल के हिसाब से अपनी आदत ढालनी होगी। कोरोना संक्रमण से बचना ही सर्वोचित है। संक्रमण का मतलब है लापरवाही। का उचित तरीके से न लगाना या बार बार हटा देना, बार बार साबुन से हाथ न धोना, आसपास स्वच्छता न बनाना, काढ़ा न पीना, भाप न लेना, पूरी नींद न लेना, अनावश्यक घूमने टहलने निकलना, आदि इत्यादि।
कोविड-19 के प्रोटोकॉल को गम्भीरता से न लेना संक्रमण के फैलने का एक प्रमुख कारण है । सरकारें व प्रशासन लगातार जागरूक करने के अनेक उपाय कर रहे हैं। टी वी से लेकर अखबार तक सोशल मीडिया से लेकर अनाउंसमेंट तक सभी स्तर की कोशिशें जारी हैं किन्तु लोग हैं कि मानने को तैयार ही नहीं। नियम कानून की अपेक्षा अपनी निजी सुख-सुविधा को अधिक तरजीह देने की आदत ही जाने-अनजाने काम कर रही है और ऐसे लोगों के कारण ही तमाम प्रयासों के बावजूद संक्रमण फैलता जा रहा है।
मास्क न पहनने पर जुर्माना लगाना पड़ रहा है। हेलमेट न पहनने पर जुर्माना, सीटबेल्ट न लगाने पर जुर्माना इत्यादि ये स्थितियाँ अपने आप में लोगों की मनमानियों की एक पूरी दास्तान हैं। लोगों के द्वारा खुद की आदतों व लापरवाहियों से जबतक नहीं लड़ा जाएगा तबतक कोरोना पर नियंत्रण असम्भव है। जितनी जल्दी जनमानस यह बात समझ लेगा उतनी ही जल्दी और उतने ही कम नुकसान के साथ कोरोना को हराया जा सकेगा। निष्कर्षतः कोरोना को हराना है तो अपनी अवांछित आदतों और लापरवाहियों से लड़ना और जीतना होगा। अपनी निजी सुख-सुविधा की अपेक्षा देश व समाज को तरजीह देनी ही होगी।
जो पाठ माता-पिता, स्कूल तथा अध्यापक सिखा पाने में असफल रहे, तथा धर्म जैसे सशक्त माध्यम भी मनुष्य की मनमानी पर नियंत्रण करने में सफल नहीं होते दिखे, उन्हें आज प्रकृति स्वयं सिखा रही है। लगातर ताउम्र आक्सीजन देने वाले पेड़ की कीमत व महत्व को न समझ पाने वाले इन्सान को सिर्फ कुछ घण्टों तक आक्सीजन देने वाले सिलेंडर की कीमत और महत्व क्या है, बहुत ठीक से समझ आ रहा है। अन्धाधुन्ध वनकटान, पृथ्वी का अतिशय दोहन जैसी मनमानियों ने ऐसा वातावरण बना दिया कि हर कोई बोलने लगा कि पूरे कुएं में ही भाँग पड़ी है। इसी भाँग के नशे को उतारने के लिए शायद ये विषाणु, वायरस पनपा है। अगर पनपाया भी गया है तो भी इन्सान की अति महत्वाकांक्षी आदतों व मनमानियों का परिणाम ही है।
एक ताजे अध्ययन में बताया जा रहा है कि कोरोना वायरस हवा में तैर सकता है व तीन घण्टे तक सक्रिय रह सकता है। एक समाचार पत्र द्वारा 17 अप्रैल 2021 को प्रकाशित, अमेरिका में हुए इस ताजा अध्ययन की रिपोर्ट ने कोरोना के नए तेवर व नए चरित्र से अवगत कराया है। यह अध्ययन कितना सच साबित होने वाला है अभी बिल्कुल साफ कह पाना कठिन है, क्योंकि अमेरिका में हुए अध्ययन के परीक्षण और पुनः अध्ययन के बाद ही शायद विश्व स्वीकार कर पायेगा ? किन्तु इतना तो सच ही है कि जो भी हो अपनी लापरवाही और मनमानी से लड़कर ही कोरोना से जीता जा सकता है। अपनी निजी सुख-सुविधा की अपेक्षा देश व समाज को प्राथमिकता देनी ही होगी। विश्वमानव और विश्वग्राम जैसी नई अवधारणाओं को स्वीकार करना ही होगा।
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