संस्कृति का स्वतः परिष्करण ही सर्वोत्तम


प्रदीप सारंग, संस्कृति का अर्थ है किसी समूह के लिए "अनुकरणीय संशोधित चुनिन्दा व्यवहारों की व्यवस्थित श्रंखला"। एक श्रंखला जो कि गढ़ती है मनुष्यता की परिभाषा। जो सिखाती है नवजात शिशुओं को मनुष्य होना। पीढ़ी दर पीढ़ी, पढ़ाती रहती है, बालकों को मानवता का पाठ। किसी के भी अवचेतन मस्तिष्क में स्थापित होकर बन जाती है रिश्तों का विश्वसनीय आधार। मन-मस्तिष्क में जब विश्वास उपजता है तो उसका अप्रत्यक्ष-कारण होती है यही श्रंखला यानी संस्कृति। जिस किसी पर विश्वास उत्पन्न होता है उस विश्वास का आधार भी यही संस्कृति होती है। संस्कृति ही है जो मानव को अन्य जीवों से श्रेष्ठ बनाती है। हर "जीव" की और "जीव-प्रजाति" की अलग-अलग संस्कृति होती है।

           जीन्स और संस्कृति का सम्यक, गहन ज्ञान होने से प्रत्येक जीव अगले पल क्या व्यवहार करेगा, ये अनुमान लगा पाना बहुत ही सरल होता है। जीन्स और संस्कृति का यह ज्ञान जितना ही गहरा होगा अगले पल का "अनुमान" सच के उतना ही निकट होगा। समस्त जीव जंतुओं का व्यवहार निर्धारित होता है सिर्फ जीन्स के कारण। मनुष्य अकेला जीव है जिसके व्यवहार तय होते हैं जीन्स और संस्कृति से। उन्नति विकास खुशहाली के लिए मनुष्य ने चुनिंदा श्रेष्ठ व्यवहारों के अनुकरण के लिए कोशिश की। और धीरे धीरे कालान्तर में ऐसे "अनुकरणीय श्रेष्ठ चुनिंदा व्यवहारों" की एक श्रृंखला" तैयार होती चली गयी जिसे संस्कृति का नाम दिया गया। इसीलिए समूहों की संस्कृति उनके कार्य व्यवसाय के आधार पर परिवर्तित होती चली गयी यानी भिन्नता आ गयी। किन्तु कुछ मुख्य तत्व समान रहे यही तत्व समरूपता का आधार बने। ये मुख्य तत्व हैं- अपने जैसा दूसरे को समझना यानी अपनी जरूरत, अपने दुख-दर्द, अपनी खुशी, की तरह दूसरे की जरूरत दूसरे के दर्द व खुशी का एहसास कर, सहयोग-सहकार के भाव से प्रेरित होकर अगले को प्राथमिकता देते हुए अपने व्यवहार का निर्धारण। दूसरे शब्दों में व्यक्तिवादी नहीं समूहवादी व्यवहार को अपनाना। व्यक्तिवाद को स्वार्थ और समूहवाद को परमार्थ कहा गया। ऐसे ही श्रेष्ठ तत्वों और व्यवहारों की व्यवस्थित श्रंखला का निर्माण ही संस्कृति का निर्माण है। 

            प्रत्येक समूह की आवश्यकताओं के सापेक्ष एक अलग संस्कृति का निर्माण होता चला गया। किसी समूह के व्यक्ति का भावी व्यवहार क्या होगा ये जानने के लिए उसकी संस्कृति का जानना जरूरी है क्योंकि मनुष्य का भावी व्यवहार तय होता है उसकी संस्कृति से उसके जीन्स से। इसीलिए एक ही परिस्थिति में भिन्न-भिन्न संस्कृति के अनुयायियों का भावी व्यवहार भिन्न भिन्न हो जाता है। ज्ञान की शाखाओं, प्रशाखाओं के विस्तारण के साथ ही संस्कृतियों का घाल-मेल बढ़ता गया है। कुछ लोगों ने इसे अपसंस्कृति कहा तो कुछ ने संस्कृति-संक्रमण कहा। किन्तु सीमित और संकुचित के टूटने पर समझ बढ़ी है। बढ़ी हुई समझ की गति भी बढ़ी है। बढ़ते ज्ञान और समझ के कारण इक्कीसवीं सदी अपसंस्कृति और संक्रमण के लिए जानी जाएगी। यानी कोई भी संस्कृति अपसंस्कृति और संक्रमण का शिकार होने से बच नहीं सकी है। सभी संस्कृतियों के सीमित संकुचित दायरे, क्रम दर क्रम टूटते चले गए हैं। सभी ने एक दूसरे में जिसे श्रेष्ठ समझा है ग्रहण करते गए हैं। कई बार अश्रेष्ठ को भी भ्रमवश श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण किया है। श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ का विवाद सिर्फ पुरातनवादिता व नूतनवादिता के बीच के टकराव हैं। जो भी हो तेजी से हुए बदलावों ने एक नए आकाश की खोज कर डाली है।दुनियाँ भर की सभी संस्कृतियों द्वारा एक दूसरे का श्रेष्ठ स्वीकार करने की तेज प्रवृत्ति के कारण स्वतः एक नई संकल्पना जन्मी है यानी "विश्वग्राम" जैसी संकल्पना आस्तित्व में आई है।

            "विश्वग्राम" जैसी नई संकल्पना यानी नई विश्व-संस्कृति ने अन्य सभी संस्कृतियों के समक्ष अपने अस्तित्व को बचाने जैसा भीषण संकट उत्पन्न कर दिया है। यह संकट भी पुरातनता और नूतनता के बीच संघर्ष से अधिक कुछ नहीं है। एक बेचैनी दिख रही है पुरातनवादियों में। संस्कृतियों में परिष्करण की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप, परिवर्तित दिशा और दशा को स्वीकार न कर पाना ही सीमितता है और पुरातनवादी प्रवृत्ति की बेचैनी का कारण भी है। बढ़ती बेचैनी का विस्फोट को विकास विरोधी हो जाना सम्भावित है। जो बहुत खतरनाक स्थिति को जन्म दे सकता है। भारत ऐसी ही खतरनाक परिस्थितियों के मध्य झूला झूल रहा है। बेचैनी से उपजे अनेक प्रयोग सार्थक न निकले तो अधकचरी भयावह स्थिति पनपेगी।   प्रयोग में फँसी पीढ़ियों के साथ हुए अन्याय की भरपाई का कोई सवाल ही नहीं, साथ ही अवैज्ञानिक प्रवृत्तियों की बाढ़ का खतरा अलग से। 

            विश्वग्राम संकल्पना व विश्व-संस्कृति का स्वीकार अपनी संस्कृति का नकार नहीं होता है। एक साथ दो आयामों पर ठहरा-जाना आम व्यवहार है। मूल्यों की प्राथमिकता का निर्धारण तो करना ही होगा। व्यक्ति खुद एक जीवंत इकाई है। परिवार उसका पहला वृत है। जिसमें रहकर वह सुख और आनन्द प्राप्त करता है। दूसरा वृत है समाज। अनेक बार समाज और परिवार के बीच प्राथमिकता का द्वंद उत्पन्न होता है ऐसे में जीवंत मनुष्य अपने ज्ञान और समझ के आधार पर तथा स्वार्थ और परमार्थ जैसे मूल्यों के आधर पर द्वंद से निपटता है। इसीप्रकार अनेक वृत हैं जहाँ टकराव होता रहता है और मनुष्य निरन्तर प्राथमिकताएं तय करता रहता है। राष्ट्र और विश्व जैसे संवैधानिक वृत भी हैं। अपनी संस्कृति और विश्व संस्कृति के बीच भी अलग-अलग समय में अलग-अलग परिस्थिति में अलग-अलग प्राथमिकताएं तय करनी होती हैं। इन प्राथमिकताओं को तय करते समय मनुष्य के मन-मस्तिष्क में पूर्व से स्थापित सांस्कृतिक मूल्य, ज्ञान व समझ, स्वार्थ-परमार्थ आदि आधार बनते हैं। निरन्तर बढ़ती हुई नई समझ के कारण एक अल्पकालिक भ्रम का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। नूतनता और पुरातनता के जुनून को त्यागे बिना भ्रम की उम्र को कमतर नहीं किया जा सकता है। समय तो स्वयं श्रेष्ठ शिक्षक है ही।   

           विज्ञान के बढ़ते कदमों ने भी सभी संस्कृतियों पर कम आघात नहीं किये हैं। विज्ञान के आलोक में कुरीतियाँ, कुसंस्कार और अंधविश्वास मरणासन्न होते चले गए हैं। संस्कृतियों में घुलमिल कर हिस्सा बने अंधविश्वासों  कुरीतियों की टूटती कड़ियों से संस्कृतियाँ स्वतः परिष्कृत होती रही हैं। अन्तिम साँसें लेते अंधविश्वासों को आक्सीजन मिल जाने का अवसर मिल सकता है जब कभी पुरातनता सशक्त हो उठे। इतने अंश में पुरातनता की महत्ता कमतर होती दिखती है।

            दरअसल अपनी-अपनी सामूहिक पहचान को कायम रखने का साधन बन गयी है संस्कृति। जो मनुष्य और मनुष्यता की व्यापकता के संदर्भ में कदाचित अनुचित है। अनुचित ही नहीं अहितकारी भी है। सवाल उठता है कि पहचान जरूरी क्यों है? इससे बड़ा सवाल है कि वही पुरानी पहचान जरूरी क्यों है? अगर पहचान जरूरी भी है तो भी वापिस जाने की तुलना में आगे बढ़ते हुए अलग पहचान कायम रखने की कोशिश ही हितकारी और सर्वोपयुक्त होगी।  जो भी हो पहचान कायम रखने की प्रबल इच्छा कई बार आत्मघाती बन जाया करती है और नूतनता का जुनून भी आत्मघाती बनते हुए देखा जा सकता है। वास्तव में दोनों एक एक छोर हैं। मानव और मानवता का वृहत्तर उत्कर्ष ही संस्कृति का उद्देश्य रहा है इससे इतर जो भी सायास, अनायास जोड़ घटाव हुआ है वो सीमिति स्वार्थ से अलग कुछ नहीं है। संस्कृति संरक्षण के नाम पर हो रहा उपक्रम यदि अन्यथा उद्देश्य से प्रेरित होगा तो परिणाम भी अवांछित ही होंगे। संस्कृति का स्वतः परिष्करण ही मानव और मानवता के लिए हितकारी रहेगा।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ