दलित की बेटी मनुवाद की राह,सुमित भार्गव(मनु) द्वारा संकलित विधान जो ब्राह्मणों की मुँह मांगी दुआ क़बूल करता है और अन्य की फरियाद अनसुनी कर कूड़े दान में डाल देता है। ब्राह्मण को उत्कृष्ट साबित करने के लिए धार्मिक पुस्तकों का सहारा लेता है। यदा;
ब्राह्मणोऽस्य मुखमादीद्बाहू राजन्या:कृत:
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यामं शूद्रोऽजायतः।
(ऋग्वेद संहिता मंडल 10 सूक्त 90 ॠचा 12)
इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मण को भुजा से क्षत्रिय उदर से वैश्य और पैर से शूद्र को पैदा किया।
ब्राह्मणों में अनेकानेक उद्भट विद्वानों ने जन्म लिया है, समाज सुधारक की पंक्ति में अपने को सबसे आगे खड़ा भी किया है। समालोचक पांडित्य के महात्म्य से खुद को अलंकृत भी किया परन्तु किसी ने भी ब्रह्मा के कृत्य का छिद्रान्वेषण करने का साहस नही दिखाया। प्रगतिशील लेखकवृंद एक साधारण सा प्रश्न करने की भी हिम्मत नही जुटा पाया। रचनात्मकता का सार यही है कि वह पूछते कि जब ब्रह्मा खुद गर्भ धारण करने में सक्षम थे तब अपनी बहन सरस्वती को पत्नी बनाने की आवश्यकता क्या थी? सरस्वती के रहते खुद गर्भ धारण करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? वह प्रश्न करने से बचते हैं वजह साफ है; वह जानते हैं कि उनके सारे अलंकरण तभी तक सुरक्षित हैं जब तक उनके नाम के साथ ब्राह्मण का उच्च कुल का आवरण चस्पा है। यदि वह तर्क-वितर्क करने का साहस प्रदर्शित करेंगे तब वह स्वयं को खतरे में प्रस्तुत कर देगे। मतलब हर किसी की तर्क शक्ति के प्रदर्शन की स्वतंत्रता उपलब्ध करा देंगे। शूद्र का तर्क, ज्ञान, अध्ययन व स्वाभिमान मनुस्मृति के लिए जहर है जहर।
इस संदर्भ में ब्राह्मण विद्वानों की तर्क न करने की शिथिलता प्रमाणित करती है कि प्रगतिशील लेखक, समाजवादी विचारक,समालोचनात्मक दृष्टिकोण, रचनात्मक पहल इनके सिर्फ स्वांग है स्वांग। अन्यथा यह सवाल करते कि गर्भ धारण करने से पुर्व मासिकधर्म के स्राव की दैहिक पीड़ादायक स्थितियाँ झेलनी पड़ती है क्या ब्रह्मा ने इन मानसिक और शारीरिक परिस्थतियों का सामना किया? यदि हाँ तब क्या ब्रह्मा को चार-चार दिन का मासिक धर्म एक ही माह में झेलना पड़ा या अलग-अलग माहों में? यदि एक ही माह में झेलना पड़ा होगा तब उन्हें लगातार सोलह दिन तक मासिक स्राव के अपवित्र समय के दौरान अलग-थलग रहना पड़ा होगा या लिंगायत औरतों की तरह राख लगा कार्यों में सक्रिय हो गए? इन चारों बच्चों को उन्होंने अपने स्तन का दूध पिलाकर बड़ा किया या फ़िर उस वक्त भी अमूल का पैकेट वाला दूध उपलब्ध था?
यह पक्ष रहा सुमित भार्गव(मनु) के चेलों का। वह अपने विधान के खिलाफ नही जा सकते। यदि गए तब अपने ही उत्कृष्टता को चुनौती देगे। हम रूख करते हैं अम्बेडकरवादियों का जो रात-दिन पानी पी-पीकर मनुवाद पर अपनी पूरी सामर्थ्य से हथौड़ा चलाते है। अपनी हर विफलता का ठीकरा मनुवाद के सिर पर फोड़ते हैं। दोषियों को कटघरे में खड़ा करना बुरी बात नही कही जा सकती परन्तु दूसरे के सहारे बैठे रहना उचित है क्या? मनुवाद की औलादे कब हमको उकसाती हैं कि हम मंदिर पहुँच कर चढ़ावा चढायें। सत्य नारायण का कथा सुनकर अपने को भाग्यशाली होने का एक निखट गंवार से आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयोजन करें।
यदि मनुवादियों ने हमें जातियों और उपजातियों में विभक्त कर रखा है तब क्या हमें स्वयं उनकी साजिश का पर्दाफाश कर आपस में रोटी-बेटी का संबंध बनाने का प्रयास नही करना चाहिए? कोई हमारी रोजी-रोटी की व्यवस्था कर सकता है लेकिन पकाना या खाना स्वतः पड़ेगा। खैर, हमें इन पहलुओं पर गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। मनुवाद शूद्र समानता, एकता, शिक्षा, स्वतंत्रता का जहां घोर विरोधी है वहीं लिंगभेद का प्रबल समर्थक भी है। सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के नाम से भयभीत रहता है। छद्म लोकतंत्र इसे खूब रास आता है। जहां सच्चा लोकतंत्र; भाई-भतीजावाद, जातिवाद, धर्मान्धता, लिंगभेद, भ्रष्टाचार,निजीकरण का प्रवेश वर्जित करता है वहीं मनुवाद इन उद्गम के स्वागत में दण्डवत रहता है।
आजाद भारत द्वारा संविधान आत्मार्पित करने के पश्चात से मनुवादी ताकते फड़फड़ा रही थी कि आखिर इसकी काट कैसे की जाए। बुद्धप्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम ने 70 के दशक में अम्बेडकरवाद के नाम पर उत्तर भारत मे अपनी उपस्थिति ही नही दर्ज करा रखी थी अपितु कांग्रेस के नाक में नकेल भी डाल रखा था। उप्र और बिहार में छिटकते अनुजाति/जनजाति कांग्रेस की जमीन धंसाने और इसे दल-दल में धकेलने की मुख्य भूमिका में आ गये थे। इतिहास साक्षी है कि दलितों और पिछड़ों के नेता संघर्ष के मार्ग पर ज्यादा अधिक समय तक चल नही पाते। थोड़ी सफलता इनमें गरूर और धन लिप्सा के लिए स्थान बनाना शुरू कर देती है अंततः संघर्ष का मार्ग त्याग समझौता के मार्ग पर चलना इन्हें श्रेयस्कर लगता है। परिणामस्वरूप जहां बुद्धप्रिय मौर्य कांग्रेस प्रिय हो गए वहीं संघप्रिय गौतम संघ शरणागत हो संसद पहुँचने को प्रधानता दी।
मान्यवर कांशीराम साहब की उपस्थिति ने 80 के दशक में उत्तर भारत में एक बार फिर से अम्बेडकरवाद के सपनों के भारत की आधारशिला रखनी शुरू कर दी। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि अब भारत भूमि पर एक बार फिर सच्चे लोकतंत्र का बोल-बाला होगा। समाज के सभी अंगों को संसद व विधान सभाओं के सदन में कर्मठ, ईमानदार और ज़मीनी कार्यकर्ताओं को भेजने का मौका मिल जाएगा। 1993 के चुनाव में यह नजारा दिखा भी जब वह लोग महारथियों को हरा कर पहुँच गए उप्र की विधान सभा में पहुँच गए जो सदियों से
गुमनामी में जीवन यापन करने को अभिशप्त थे। कोई चूहा मारने की दवा बेच रहा था तो कोई कपड़े पर इस्तरी कर पेट की भूख मिटा रहा था। कोई जूते की सिलाई कर रहा था, कोई पंचर लगा रहा था तो कोई बटाई पर दूसरे के खेतों में हल चला रहा था। सबके सब विधानसभा पहुँच चुके थे। पहली बार जीत का प्रमाणपत्र व आवास आवंटन का पत्र लेकर दिसम्बर में दारूल सफा पहुँचे नवनिर्वाचित विधायकों को यह भी ज्ञात नही था कि गीजर भी कोई उपकरण होता है और उसमें पानी गर्म होकर टोटी से गिरता है। गर्म पानी के साथ ठंडे पानी की टोटी भी साथ ही खोलनी पड़ती है ताकि उस पानी से स्नान किया जा सके। जानकारी के अभाव में कई माननीय विधायक गण सीधे गीजर वाली टोटी खोल कर बैठ गए और अपनी नंगी बदन जला बैठे।
अटल बिहारी वाजपेई ने 1996 में इलाहाबाद के पी. डी. टंडन पार्क की एक जनसभा को संबोधित करते हुए हुंकार भरा कि कांशीराम- मुलायम सिंह की जोड़ी मेरी आँखों में कांटे की तरह चुभ रही थी,हमने मायावती नामक एक कांटा उठाया और मुलायम सिंह नामक कांटे को निकाल कर बहुत दूर फेक दिया है अब दोनो कभी आपस में मिल नही सकते। 3 जून 1995 को भाजपा और बसपा गठबंधन की सरकार बनी। यहीं से शुरू हुआ लोकतंत्र की हत्या का प्रारब्ध। अटल बिहारी वाजपेई और पी. वी. नरसिंह राव या सीता राम केसरी द्वारा नही अपितु बहन मायावती द्वारा। मनुवाद की संतानों से लोकतंत्र की अपेक्षा करना बेईमानी है परन्तु अम्बेडकरवाद की राह पर अग्रसर दलित की बेटी से अपेक्षा की ही जा सकती थी। स्मरण रहे यही समय था जब मान्यवर कांशीराम साहब अस्वस्थ होकर स्कार्ट हार्ट अस्पताल में भर्ती हुए थे । इस दरम्यान वह सिवाय बहन जी से अपने जीवन के अंतिम दिन तक किसी से मिल नही पाएं। 1996 में बसपा के टिकटों के बंटवारे का पैमाना बदल गया। अब मोची, धोबी, खटिक, भंगी, गड़ेरिया, कुर्मी, अहीर आदि जो अपने पुश्तैनी पेशे से अपनी आजीविका चला रहे थे उनके लिए बसपा के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गए थे। 1996 में बसपा ने अनुजाति के उन लोगों को टिकट दिया जिन्होंने ₹1.5-3.00लाख, पिछड़े ₹5 लाख और अगड़े ₹7+ लाख की कीमत बहन जी को अदा की।
अनवरत इस मनोवृत्ति में बढ़त के साथ पुनरावृति होती रही। शायद मान्यवर कांशीराम जी की शारीरिक दुर्बलता और मनुवादियों की नजदीकी ने बहन जी को चक्रव्यूह में फांस लिया या उनकी धन और भाई-भतीजावाद को आगे बढ़ाने की उत्कंठा ने मनुवादियों की राह पर चलने को मजबूर कर दिया। 2006 का उनका आख्यान की आप लोग पत्थर की देवियों की आराधना बंद करें मुझमें भरोसा रखें मैं हूँ! आपकी जिन्दा देवी। उनकी इसी मानसिकता का मनुवादियों ने 2007 के चुनाव में पूर्ण बहुमत से आई बसपा सरकार का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। व्याख्या की गई बसपा की जीत बहुजन की जीत नही अपितु सोशल इंजीनियरिंग का प्रतिफल है।
लोकतंत्र में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के लिए कोई स्थान नही यदि कोई इन कृत्यों का सहारा लेता है तब वह न तो अम्बेडकरवादी हो सकता है और न ही लोकतंत्र समर्थक। वह लोकतंत्र को अपनी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी समझता है। आपके स्मरण के लिए उद्धृत करना प्रासंगिक होगा कि पहले बालीवुड में निदेशक केन्द्रीकृत व्यवसाय होता था। जबसे अंडरवर्ल्ड की दखलंदाजी बढ़ी, अपहरण की घटनाक्रम परवान चढ़ा उन्होंने कंपनी बना शक्ति का विकेन्द्रीकरण कर दिया तबसे अपहरण की घटनाएं थम सी गई। अम्बेडकरवादी आन्दोलन तभी सफल हो सकता है जब पार्टी के भीतर लोकतंत्र हो,न कि नौकरों को पद बांट कर तानाशाही चलाई जाय।
हमें मनु से नफ़रत नही है उसके अनैतिक, समानता प्रतिकूल नीतियों से एतराज है। जब वह व्याख्यान देता है कि ब्राह्मण उत्कृष्ट है,ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है तब हम उसके आख्यान को अव्यवहारिक मानते हैं। लेकिन जब बहन मायावती खुद को देवी घोषित करें, अपने परिवार में पैदा हुए लोगों को उत्कृष्ट साबित करने का प्रयास करें, हम उनके समर्थन में खड़े हो जाएं। क्या यह मनुवाद नही है? मोदी के भक्त कुत्ते और माया के भक्त टाॅमी! यह दोगलापन क्या हमें अपनाना चाहिए। हमें हर अन्याय के लिए अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए चाहे वह पाप विप्र का हो या दलित की बेटी का।
*गौतम राणे सागर*
राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।
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