सत्ता की भूख ने बहुजन नेताओं को निकम्मा बना दिया है। प्रतीत होता है इनके सोचने समझने की क्षमता पर पक्षाघात का गहरा आघात हुआ है। यह दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक के मत, सहयोग से नेता बनते हैं। परन्तु सत्ता के गलियारे मे दाख़िल होते ही भटक जाते हैं। सत्ता का चरित्र है वह अपरिपक्व लोगों को या तो भटका देती है या फिर अटका देती है। नेताओं की दोनो स्थितियाँ समाज को भारी मूल्य चुकाने पर मजबूर करती है। यह कैसी विडंबना है जिस भारत गणराज्य में हम रहते हैं वहां लोकतंत्र पर चौतरफा हमला हो रहा है और हम मूक दर्शक बने बैठे हैं? यदि लोकतंत्र की विरोधी ताकतें इसे कुचलने का कुचक्र करती हैं तब *हम लोग* की परिकल्पना इतना घायल नही होती जितना यह संकल्पना तब क्षत-विक्षत होती है जब लोकतंत्र की ताकत से सत्ता के करीब या सत्तारूढ लोग लोकतंत्र को कमज़ोर करने के सिद्धांत पर सक्रिय नजर आते हैं।
लोकतंत्र की मजबूती का आधार बनता है *हम की सहभागिता*,सत्ता के गलियारे तक *हम संकल्पना* की धमक या पहुँच। जब आम नागरिक समस्या समाधान के लिए अपनी पीड़ादायक स्थिति को सत्ता के सामने प्रकट में असहाय नजर आता है तब स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय गणराज्य में गणतंत्र का अभिनय हो रहा है। सभी दल व दल-दल इस अभिनय में अपनी अविस्मरणीय भूमिका अदा कर रहे हैं। आम आदमी इनकी अभिनय दक्षता से प्रभावित होकर आत्म-विभोर है। अनर्गल अभिनय की मुखालफत करने के बरक्स जन-सामान्य लोग प्रसन्न होने के अवसर ढूँढने लगते हैं तालियाँ बजा-बजाकर अदाकारों का उत्साहवर्धन कर अपनी कब्र खोद लेते हैं। सियासत के धूर्त खिलाड़ी जनमानस को उन्हीं कब्रों में धकेल देते हैं जो वह गल्ती से खोद बैठे थे। जातीय दंभ और जातीय गठजोड़ लोकतंत्र के लिए विनाशक है, यहीं से कूपमण्डूक नेता जन्म लेते है। यह दावा तो करते हैं दलित, पिछड़े व अल्पसंख्यक नेता होना का परन्तु इनका ध्यान केंद्रित होता है परिवार वाद और भाई-भतीजावाद के उत्तरोत्तर प्रगति पर।
विदूषक की तरह यह समाजवादी होने और अम्बेडकरवादी होने का स्वांग करते है। क्या डाॅ लोहिया के विचारों की बलि चढ़ा कर कोई समाजवादी हो सकता है या डाॅ अम्बेडकर के विचारों की तिलांजलि देकर देश में जातीय पोषक तत्वों के शरणागत होने से देश को एकरूप समाज बनाने की दिशा में सफल हो सकता है? शायद नही! मनन करने पर आप इसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। इन धूर्त नेताओ के बयान सुनकर आप पेट पकड़कर हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाएंगे। यह दावा करते हैं कि हमने अपने दल मे आंतरिक लोकतंत्र को महत्व दिया है। लेकिन जब द्वितीय या तृतीय लाइन के नेतृत्व प्रस्तुत करने की बारी आती है तब इनकी दृष्टि में भाई,बेटा,भतीजा या परिवार से इतर कोई नजर ही नही आता। *तितलौकी (कड़वी लौकी) नीम चढ़ी*को चरितार्थ करने वाले इनकी पोटली में अनेकानेक दावे मौजूद हैं। कभी पोटली से निकालकर बयान देगे कि हमने बहुत लोगों को द्वितीय या तृतीय लाइन्स के नेता के रूप में तैयार करने का प्रयास किया परन्तु कोई हमारे मापदंड पर खरा नही उतरा। कोई मापदंड पर खरा कैसे उतरेगा जब सोच है नालायक भाई-भतीजा को लायक पार्टी कार्यकर्ताओं पर प्राथमिकता देकर गला घोटकर लोकतंत्र की हत्या करना।
संविधान के अनुच्छेद 36-51 तक जो राज्य के नीति निर्देशक तत्वों (Directive Principles of State Policy) को देश के नागरिकों में मौजूद विषाक्त असमानताएं, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शीघ्रतिशीघ्र दूर करने की अपेक्षा करता है। बावजूद इसके संविधान की अपेक्षित एकरूप समाज की स्थापना क्यों नही हो पा रही है? जात्याभिमानी सरकारें अपनी जात्याभिमान की रक्षा में संलिप्त रही व तथाकथित दलित और पिछड़ा कही जाने वाली सरकारें अपने भाई-भतीजावाद या परिवार वाद के पोषण में ही अस्त-व्यस्त रही हैं। समय की मांग है कि इन तथाकथित नेताओं जो अपने को लोहिया वादी और अम्बेडकरवादी होने का दिखावा करती हैं इनका पोल-खोल अभियान चलाया जाय और फितरत की असीम शक्तियों के कुख्यात महारथियों को लोकतंत्र की असली ताकत दिखाई जाए। लोकतंत्र भक्षकों को सबक सिखाया जाय कि लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में राजतंत्र की स्थापना का प्रयास दण्डनीय अपराध है।
*गौतम राणे सागर*
राष्ट्रीय संयोजक
संविधान संरक्षण मंच।
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