विडम्बना............


  उ.प्र. 2022 विधानसभा चुनाव होगा किसी के लिए जीत, हार और सत्तारूढ होने का सबब। हर अम्बेडकर व संविधानवादी के लिए यह लोकतंत्र बचाने का आखिरी अवसर है। BJP(भ्रष्टाचार जननी पार्टी) हार गई तब लोकतंत्र भक्षकों से दो-चार हाथ करने का अवसर मिल सकता है अन्यथा गई भैंस पानी में। वाकई बड़ी द्विविधा है आगे आग और पीछे खाई है। उप्र में यदि बीजेपी की वापसी होती है तब योगी मॉडल के स्वास्थ्य के लिए मोदी की बलि चढ़नी तय है। परंतु योगी की विदाई और बीजेपी की वापसी का स्पष्ट मतलब होगा लोकतंत्र का अस्थि विसर्जन। 

   निर्णय प्रदेश के सजग, जीवंत व जागरूक मतदाताओं के हाथ है क्या वह अपने जातीय क्षत्रपों के अस्तित्व बचाव में खड़े होगे या फिर लोकतंत्र और संविधान रक्षार्थ अपना मत देगे? उप्र की उभरती चुनावी तस्वीर के साफ संदेश है लोकतंत्र की रक्षा हेतु बीजेपी को जल समाधि दे दी जानी चाहिए। आज भी कुछ आस्तीन के साँप है जो लोकतंत्र को शूली पर चढ़ा अपने अस्तित्व की लड़ाई में मग्न है। अपने पापों को छिपाने के लिए बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के विशालकाय व्यक्तित्व के ओट में खड़े होकर भजपा को संजीवनी देने की अपनी फितरत को भी दलित हितों से जोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं। 

        कुछ तो शर्म होनी चाहिए दलितों की दमड़ी लूट लेने के बाद उनकी चमड़ी के सौदे पर भी गिद्ध दृष्टि जमाए बैठे है। इस तरह के लोग और कितना नैतिक पतन के रसातल में गिरेगे। कालिदास की तरह जिस डाल ने उनका बोझ उठा रखा है आखिर कब तक उसे काटते रहेंगे। चलिए मानते है दलित-प्रश्न उन्हें तब तक प्रिय हैं जब तक वह उनके लिए धन इक्ट्ठा और सत्तारूढ करने में मददगार साबित होते रहेगे। विचारणीय पहलू यह है दलित आपके के लिए तभी तक उपयोगी है जब तक इस देश में लोकतंत्र और संविधान संरक्षित है। इसके पश्चात न दलित आपके काम आयेगा और न ही इकट्ठी की गई बेइंतिहा धन और सम्पदा। यूरेशियाई नस्लों द्वारा सब लूट ली जाएगी। 

     सपा की सत्ता में वापसी निस्संदेह दलितों, पिछड़ो और अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान कर पाएगी संशय है परन्तु घायल लोकतंत्र को स्वस्थ होने का अवसर अवश्य उपलब्ध करा देगी। हो सकता सपा मुखिया दलित-प्रश्न पर मुखर होने के बरक्स लचक जाते हो। फिर भी उनकी जीत लोकतंत्र की प्रत्यक्ष न सही परोक्ष जीत अवश्य होगी। 

        जिन्हें चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी न मिल रहे हो। बागियों नही दुत्कारे गए लोगो यानि घोड़ों की बजाय खच्चरों पर दांव लगाना पड़ रहा है जब वह भी सत्ता मे आने का दावा प्रस्तुत करे तब समझ जाना चाहिए या तो वह अपहॄत है या भी लोकतंत्र भक्षकों की पंक्ति में खड़े हो गये है। जब सिफर से शिखर तक पहचान दिलाने की बारी थी तब अखिलेश प्रिय थे और आज दलित विरोधी हो गए वाह रे दोगलापन। उल्लेखनीय पहलू यह है कि 2014 में एक भी सदस्य लोकसभा मे भेजने पर असफल होने के बावजूद अखिलेश ने बराबर सीटों का समझौता कर पूरा का पूरा सम्मान दिया तब वह दलित विरोधी नही थे तो अब कैसे हो गए?

     भाई के लूटपाट पर जरा सी यूरेशियाई नस्लों की भृकुटि का खींची और उसके आनंद मे अवरोध क्या उत्पन्न हुआ आपकी चीख निकल गई! आपको लगा कि अब इसे अरबपतियों की सूची में आकाश की उँचाई दिला पाना मुश्किल है तब लगीं फड़फड़ाने। शुरू हो गया अखिलेश के खिलाफ दोष मढ़ने का गंदा खेल। जो सामाजिक परिवर्तन का पुनीत कार्य 1995 में बिखर गया था 2019 मे उसकी पुनरावृत्ति का प्रारब्ध था। डिंपल और अखिलेश का आपके पैरों को छूकर आशिर्वाद लेने की तस्वीर ने यूरेशियाई नस्लों को डरने पर मजबूर कर दिया था। थर-थर कांप रहे थे वह। युद्ध की पूरी बागडोर आपको को सौंप वह आपके नेतृत्व को उत्कृष्ट मान अनुकरण करना चाहते था सपा कुनबा। पांच सीटों पर सिमटने के बावजूद उन्होंने आप पर उँगली नही उठाई। 

         भावनात्मक न होकर विचारशील निर्णय लेने की जरूरत है। बहुजन की परिकल्पना को साकार करने की आवश्यकता है। दलित, पिछड़े में ब॔टने से बंटाधार के अलावा और कुछ भी न होगा। यूरेशियाई नस्लों का बंध्याकरण करने की प्रबल मांग है। 

*गौतम राणे सागर*

  राष्ट्रीय संयोजक, 

 संविधान संरक्षण मंच।

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