आंबेडकर युग की निष्फलता......


  उ.प्र. में तक़रीबन दस लाख अनुसूचित जाति के कर्मचारी प्रत्यावर्तित किए गए। कईयों का प्रत्यावर्तन दो पदों तक हुआ यानि अगर वह अभियंत्रण सेवा का था, उसकी नियुक्ति अवर अभियंता से हुई थी और पदोन्नत होते होते वह अधिशाषी अभियंता पद तक पहुंच गया, प्रत्यावर्तन के पश्चात् वह अपने मूल पद पर वापस आ धड़ाम से गिरा। प्रत्यावर्तन के पश्चात् उसे नियुक्त भी उस सहायक अभियंता के अधीन किया गया जो कभी उसका सहायक हुआ करता था। इतना बड़ा अपमान यदि कोई सहकर बर्दाश्त कर सकता है तो दुनिया में एक ही प्रजाति है अनुसूचित जाति उर्फ़ मनमौजी। ऐसे डरपोक, भीरू, आत्मकेंद्रित, स्वार्थ लोलुप, अदूरदर्शी प्रतिनिधियों से बाबा साहेब डॉ आंबेडकर अपेक्षा करते थे कि वह अपने प्रतिनिधित्व का पुरजोर दावा प्रस्तुत करेंगे, कमतर होने की दशा में अपनी आवाज़ बुलन्द करेंगे, सरकार को मजबूर करेंगे कि अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व को पूरा किया जाय!

     बाबा साहब डॉ आंबेडकर की विचारधारा को गतिमान करने वाले कांशीराम साहब ने माना कि बहुजनों को 6743 जातियों में विभक्त कर उन्हें समस्त अधिकारों से वंचित कर दिया गया। यदि वह एकत्रित हो जाए तो अपने छिने हुए सत्ता को पुनः हासिल कर सकते हैं। वर्तमान स्थिति कुछ अलग ही कहानी कह रही है। आरक्षण की धरातल पर नौकरी प्राप्त नौकरों ने अपना एक अलग वर्ग ही खड़ा कर लिया, *सुविधा भोगी वर्ग*। अपने को एससी प्रतिनिधि मानने के बरक्स इसने अभिजात्य की श्रेणी में खड़ा होना पसन्द किया। इतना अभिजात्य हो गया कि वाजिद अली शाह से अपनी तुलना करने लगा। ब्रिटिश दुश्मन सेनाओं से घिरे होने की जानकारी के बावजूद वाजिद शाह ने भागकर अपनी जान बचाने का प्रयास करने की बजाय इत्मीनान से बैठना पसन्द किया। न भागने का कारण स्तब्ध करता है। चूकि उनका कोई सिपहसालार वहां मौजूद नही था जो उन्हें जूता पहना सकता, बिना जूता पहने भागना नवाबी की तौहीन होती! ठीक यही हाल एससी के सरकारी कर्मचारियों का रहा, दृष्टिकोण का अभाव योजना की कमी, परस्पर सहयोग का अकाल, एक नेतृत्व न बना पाने की कूपमंडूक तथाकथित विद्वान विलासिता इन्हें ऐसी जगह ले डूबा जहां पानी इतना कम था कि जूता भीगना भी मुुश्किल होता। हर जगह प्रतिनिधित्व होने का सपना चकनाचूर हो गया। 

दिल के फफोले जल उठे सीने की दाग से,

 इस घर को आग लग गई घर के चिराग़ से।

     ऐसे प्रतिनिधियों से समाज के उत्थान की अपेक्षा कितना उचित है? जिन्हें आज तक भान नही कि वह एक व्यक्ति नही संस्था है। ख और क श्रेणी के एससी नौकरों का बहुत बुरा हाल है। वह कुएं के मेढ़क की तरह उसी कुएं को ही अपनी दुनिया स्वीकार कर लिये है। नौकर संबोधित करने के पीछे अपमान कि इच्छा कतई नही है। बस अनुरोध है कि वह अपने चरित्र पंजिका या सेवा अधिनियम को पढ़ ले जिसमें उनके विशेषण के रूप में *वह लोक सेवक हैं* अंकित है। आरक्षण का लाभ उठाने से इतर समाज के प्रति इनका योगदान क्या है, विचार होना चाहिए। जहां इतने व्यतिक्रमी/दिवालिया हो वहां भी  यदि विपक्ष डॉ आंबेडकर का माला जपने पर मजबूर है तो सलाम है उन लाखों करोड़ों भूखों, नंगों, बेरोजगार दलित, पिछड़े नौजवानों को जिनके संघर्षों के दम पर समाज के निकृष्ट लोगों की रोजी रोटी चल रही है।

    कल्पना करें जिस दिन सरकार इस बात से आश्वस्त हो जायेगी कि एससी नौकरों को निकाल देने से यह समाज सड़कों पर आंदोलन नही करेगा उसी दिन डिफॉल्टर्स का बोरिया बिस्तर बध जाएगा। हां यह भी सच है कि एससी के ग और घ श्रेणी के कर्मचारियों ने ही डॉ आंबेडकर को जीवित रखा है। नौकरों से अपेक्षा है कि वाणी विलासिता से बाहर निकलें यदि वह वाकई ज्ञानवान, रणनीति में पारंगत है, ऊर्जावान है तो मनसा, वाचा, कर्मणा से समाज का नेतृत्व कर इसे देश में एससी बैकवर्ड के हर व्यक्ति को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का यत्न करें।


 प्रत्यावर्तित कर्मचारियों की सूची किसी के पास हो तो उपलब्ध कराएं।

*गौतम राणे सागर*

 राष्ट्रीय संयोजक,

संविधान संरक्षण मंच।

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