अहंकारोन्मादी........


 दलित प्रोफेसर्स की विश्वविद्यालयों में पिटाई चहुंओर चिन्ता का सबब है। गुस्सा राजनीतिक दलों पर फूट रहा है। किसी भी दल ने इस घटना की मजम्मत नहीं की। हमारे यहां राजनीति ही एक स्रोत है जो हर एक घटना पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करे। संविधान संरक्षण का उत्तरदायित्व उन्हीं के कन्धों पर है, चाहे संसद, सड़क, विश्व विद्यालय, प्रशासन जहां भी अनियिमितता हो राजनीतिक दलों को ही सक्रिय होना चाहिए। प्रोफेसर्स, कर्मचारी व प्रशासनिक लोगों के हाथों में मेंहदी,पैरों में महावर, चेहरे पर घूंघट है अपनी रक्षा के लिए बाहर निकलेंगे तो मेंहदी छूटने, महावर घिसने और घूंघट उड़ने का डर रहेगा।

    समस्या हमारे सामने यह भी है कि इनकी कमियों पर चर्चा भी तो नही कर सकते! ऐसा करते ही खलनायक बन जायेंगे। राजनीतिक दलों ने वोट लिया है तो समाज के हर एक व्यक्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाएं। आरक्षण का लाभ लेकर नौकरी हासिल करने वाले कितने प्रतिशत लोग हैं जो रात में पेट और सुबह शौचालय की सीट भरने से इतर कोई कार्य करते हैं? प्रोफेसर्स ने दाखिला के समय कभी यह जानने की कोशिश की कि कितने अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के बच्चों का दाखिला हुआ है? कितनों को दाखिला लेने दिक्कत हो रही है? छात्र वृत्तियां ठीक से मिल रही है या नही? पीएचडी में कितने प्रतिशत बच्चों का दाखिला हो पा रहा यदि रूकावटे आ रही तो दूर करने का प्रयास किया गया?

 राजनीतिक दलों ने डिफॉल्टर्स की तमाम सीमाओं को पार करने के बावजूद समाज के स्वाभिमान वृद्धि में कुछ न कुछ किया है। एक विश्वविद्यालय में कितने प्रोफेसर्स, अन्य स्टॉफ व विद्यार्थी होंगे? क्या इस हमले का इन्होंने सामूहिक तौर पर मुक़ाबला किया शायद जवाब ना में ही आयेगा? इस हमले पर बहन मायावती या अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी, शायद अधिकांश लोग इसी प्रतीक्षा में होंगे। व्यक्तिगत तौर पर मैं बहन मायावती के निष्क्रियता का आलोचक हूं फिर भी उनकी यह निष्क्रियता हमें चुभी नही। परिनिर्वाण प्राप्त कांशी राम साहब का भी यही मत था कि जिस समाज को दबा के रखा गया है उसे प्रताड़ना की हर जगह पर मुक़ाबला करना चाहिए। बहन जी इस आवरण में अपनी निष्क्रियता को छिपाती हैं तो यह क़दम अतिरंजित नही कहा जा सकता! बहन जी का जहां यह स्याह पक्ष समाज को उनसे दूर करता है वहीं सत्ता में होने पर उनके द्वारा किए गए कार्यों ने उन्हें समाज में एक सम्मानित ऊंचाई भी दी है।

    रही अखिलेश यादव की बात तो यह नही भूलना चाहिए कि जब 2017 में सत्ता परिवर्तन हुआ था तब उनके द्वारा खाली किए गए मुख्यमंत्री आवास को एक जानवर के मल और मूत्र से धुलवाया गया। यानि यह बताने की कोशिश की गई थी कि एक शूद्र के वास करने से मुख्यमंत्री आवास अशुद्ध हो गया था। जानवर के मल मूत्र की हैसियत भी नही है शूद्र की। तब भी उनके कानों पर जूं नही रेंगी तो अब क्या ख़ाक उन पर असर पड़ेगा।

     उल्लेखनीय बिंदु यह है कि विश्वविद्यालय में होने वाले हमले क्या किसी राजनीतिक दल ने किए हैं, नही न?हम इस यथार्थता से मुंह नही मोड़ना चाहते हैं कि राजनीतिक दलों के इशारे पर ही हल्ला बोला गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का यह एक अभियान है। कांशी राम साहब ने यह वाक्य बार बार दोहराया है कि हमारे देश में लोकतंत्र है, हम भी लोकतंत्रात्मक तरीके से ही सत्ता परिवर्तन के पक्षधर हैं परन्तु लोकतन्त्र की हिफाज़त के लिए बुलेट का सहारा लेना पड़ा तो संकोच नही करेंगे। इस उद्धरण को कभी एकत्रित होकर छात्रों के बीच प्रोफेसर्स द्वारा साझा किया गया। जब जरायम पेशेवर कबीले की पार्टियों के समर्थक छात्र विश्वविद्यालयों में उद्दंडता में सक्रिय हो जाते हैं तब क्या देशभक्त छात्रों को सक्रिय नही किया जा सकता? स्वयं का स्वांग व एकला चलो की प्रवृत्ति उन्हें छात्रों से संवाद ही नही स्थापित करने देती।

    जहां प्रोफेसर्स सैकड़ों की संख्या में है,विद्वानों के उद्गम स्थान है वहां भी एकता का अभाव! तब एक बात कही जा सकती है धिक्कार है ऐसी विद्वता पर जो अपने ही संस्थानों में खुद को सुरक्षित नही कर पा रहे हैं। असुरक्षा की वजह उनका खण्ड खण्ड होना है। प्रतीत होता है जैसे यह सब अहंकारोन्माद की फोबिया के शिकार हैं। इनमें इतनी अक्ल तो होनी ही चाहिए कि हमारे देश में धर्म के नाम पर कुछ जरायम पेशेवर कबीले अपनी हेकड़ी कायम रखना चाहते हैं। उनकी हेकड़ी को चुनौती दी जानी चाहिए लेकिन पूरी तैयारी के साथ मनमौजी तरीके से नही कि ढ़ोल की तरह बजाए जाते रहे। किसी छद्म पर हमला बोलने से पहले प्रतिकार की स्थिति में खुद को सुरक्षित रखने के लिए एक टीम रखनी चाहिए।

     यदि अनवरत संस्थानों पर हो रहे हमले को बर्दाश्त करते हैं तो मतलब साफ़ है, हम देशभक्त नही अपितु एक कायर है जिसे देशद्रोही क़दम भी माना जा सकता है। वर्तमान सरकार उद्योग घरानों की रखैल है। इनसे मुक़ाबला का सहज रास्ता सिखाया है हमें गांधी जी ने। बरातनवी हुकूमत भी उद्योगपतियों की ही सरकार थी। जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जानी जाती थी। गांधी जी ने विदेशी हुकूमत के प्रतिकार में विदेशी कपड़ों की होली खेली थी। उन्हीं का अनुसरण करते हुए देश को गुलाम बनाने के लिए शैक्षणिक व अन्य संस्थानों को तबाह करने वाली नव ईस्ट इंडिया कंपनी जिसे अडानी और अंबानी ग्रुप के नाम से जाना जाता है उसके समस्त उत्पादों का बहिष्कार करें यकीन माने महीने भर में ही सभी संस्थानों से शरारती हरकतें बन्द हो जायेगी।


 संविधान संरक्षण मंच यूरेशियाई नस्लों के एक एक रग से वाकिफ है। मंच इन्हें चकरघिन्नी का नाच नचाएगा। जब तक देश को लूटने वाले उद्योगपतियों के उत्पादनों का बहिष्कार नही होगा, यह सुधरने वाले नही है। बनिया का सामान बिकना बंद, सारी की सारी चौधराहट खत्म। हम देश की स्वतंत्रता की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेते हैं। 


कसम मुझे इस मिट्टी की हम देश नही बिकने देंगे,

खरीदने,बेचने वाले दोनों को देश में नही टिकने देंगे।

*गौतम राणे सागर*

  राष्ट्रीय संयोजक,

संविधान संरक्षण मंच।

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