आरएसएस, थेथरोलोजी की पर्यायवाची

अतीक अहमद और अशरफ की पुलिस अभिरक्षा में 15 अप्रैल 2023 को सोची समझी रणनीति के तहत की गई हत्या को आरएसएस न्यायोचित ठहराते हुए तर्क प्रस्तुत करता है कि क्या अपराधियों को खुली छूट दी जानी चाहिए, उन पर रहम किया जाना चाहिए? अपनी बात को बलशाली बनाते हुए वह कहते हैं कि मामूली से गुंडे को माफिया बनाया किसने, इसी समाजवादी सरकार ने न? संभव है इनका यह तर्क प्रथम दृष्टया उचित भी लगे। परिचर्चा का बिन्दु यह नही है कि अतीक अहमद अपराधी था या नही? बहस का केन्द्र बिन्दु यह है कि जब हमारे देश मे न्यायालय हैं, अपराधियों को दण्डित करने का दायित्व उनका है, तब फिल्मी स्टाईल में इस हत्या को लाइव प्रसारण में अंजाम क्यों दिया जा सका? उसकी सुरक्षा में चाक चौबंद पुलिस भी जब उसकी रक्षा नही कर पाई तब प्रश्न उठता है कि क्या उप्र पुलिस पूरी तरह से निकम्मी है?
            इस घटना से अपराध कम होने के बरक्स नए अपराधियों के हौसले बुलंद हुए हैं। अपराध की दुनियां में कदम रखने वाले नवागंतुकों के आत्मविश्वास में ग़जब की वृद्धि हुई हैं। उन्हें लगा कि जब कैमरे के सामने लाईव प्रसारण, वह भी पुलिस के घेरे में हत्या करना संभव है तब सुदूर ग्रामीण इलाकों और रात्रि के अंधेरे में घिनौना अपराध करने से कौन रोक पायेगा उनके अभियान को? एक था श्री प्रकाश शुक्ला जिसे एसटीएफ ने 22 सितम्बर 1998 को वसन्त कुंज दिल्ली में हुए मुठभेड़ में मार गिराया था। इसी तरह की घटनाओं की ऊपज वह भी था। उसके पास भी एके 47 राइफल थी। धीरे धीरे उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई कि मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी ले ली। जिस तरह अतीक हत्या काण्ड में तुर्की की बनी जिगाना रिवॉल्वर उपयोग की गई है ज़ाहिर सी बात इन तीनों को अपराध की दुनिया का बेताज बादशाह बनाने की तैयारी की गई है , उन्हें अनुकूल पिच उपलब्ध कराई गई है। कौन है मास्टरमाइंड जो इनके पीछे रहकर इन्हें संचालित कर रहा था? इतनी सरलता से सब कुछ उपलब्ध हो जाना वह भी सत्ता के अप्रत्यक्ष सहयोग के बिना संभव तो लगता नही।
           संभव है कि आरएसएस और भाजपा सरकार स्वीकार करने को तैयार न हो कि उसके कार्यकाल में अपराध अबाध गति से बढ़ रहा है। जिन पुलिस कर्मियों से अपराधियों को भयभीत होना चाहिए था वह तो इस सरकार में एक दूसरे से गलबहियां करते नज़र आ रहे हैं। अपराधी निर्द्वंद और आम जनता भयाक्रांत है। थानों तक अपराधियों की पहुंच बढ़ी है और पीड़ितों की कम हुई है। खुले आम पुलिस अभिरक्षा में अपराधियों के खिलाफ़ मुहिम के नाम पर कानून की धज्जियां उड़ाने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? प्रतीत होता है कि आरएसएस दो मुंहा सांप के स्वभाव की है। यह हर हाल में अपने कुकर्म को छिपाने के लिए दूसरों पर आरोप मढ़ने में चैंपियन हैं। यह भूल जाते हैं कि अतीक अहमद की हत्या को अपराधी के आवरण में पेश कर देश के कानूनी संस्थानों की खिल्ली उड़ा रहे हैं। जिस दिन कानूनी संस्थान शिथिल पड़ जाएंगे, सड़क पर ही सभी के पाप का हिसाब होने लगेगा तब जंगल का कानून भी पीछे छूट जायेगा। सेफ जोन में बैठे हुए लोग भी अपनी सुरक्षा को लेकर चिन्तित दिखेंगे। लोगों को अपने अंध स्वार्थ में कम से देश की एकता और अखंडता को इतने खतरे में डालने का जोखिम उठाने से बचना चाहिए।
         यह सुग्रीव के पक्ष में खड़े होने पर बाली के विरोध में इतने मशगूल हो जायेंगे, भूल जायेंगे कि सही कौन और गलत कौन था? सुग्रीव और बाली के विवाद की जड़ क्या है तब यह कुतर्क गढ़ेगे कि बाली ने सुग्रीव को उसका हक़ नही दिया, उसे मारकर राज्य से निष्कासित कर उसकी पत्नि को रख लिया। सहमत! बाली को सुग्रीव की पत्नि रमा को अपनी पत्नि नही बनाना चाहिए था, क्योंकि छोटे भाई की पत्नि बेटी समान होती है। भ्रम यहां खड़ा होता है कि छोटे भाई की पत्नि बेटी समान होती है स्वीकार्य। लेकिन बड़े भाई की पत्नि तो मां समान होती है तब राम ने बाली की हत्या के बाद उसकी पत्नि तारा को सुग्रीव को अपनी पत्नि बनाने की सहमति क्यों दी? उदाहरण प्रस्तुत करना प्रासंगिक है क्योंकि इनके शरीर की धमनियों में रक्त के बरक्स पक्षपात संचारित होता है।
          अपराध तो 2005 में गुजरात में भी हुआ था जब शोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में 2010-12 तक न्यायालय ने एक महाशय को गुजरात राज्य से ही बदर कर दिया था। यदि न्यायालय के फ़ैसले का इन्तजार किए बगैर ही पुलिस अभिरक्षा में इनकी भी हत्या हो गई होती तो क्या वह देश के गृह मंत्री बन सकते थे? तब पूरा देश इन्हें सिर्फ़ जघन्य अपराधी ही नही अपितु नरभक्षी भी समझने लगा था। जन सामान्य के समक्ष जिस तरह की परिस्थितियां उपस्थित की जाती है उसी तरह वह लोगों के प्रति अपनी भावना बना लेता है। जरूरत है कि भवावेश में प्रमाण पत्र जारी करने की तुलना में न्यायालय को अपना काम करने देना चाहिए। इस बात का प्रमाण नही दिया जा सकता है कि न्यायालय से सभी को न्याय ही मिलता है परन्तु गहरे अविश्वास के बावजूद लोग न्यायालय के फ़ैसले को स्वीकार लेते हैं। न्यायालय से कुछ लोगों को पहुंच का अतिशय लाभ मिल जाता है। अक्सर देखा गया है कि जातिवाद और साम्प्रदायिक मनोवृत्ति न्याय पर हावी हो जाता है। कोई अलाउद्दीन का चिराग़ तो है नही कि रगड़ते ही जिन्न उपस्थित होकर गारंटी ले ले कि न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति न्यायिक मनःस्थिति के दायरे में ही रहेगा, जातीय दुर्भावना उसके न्यायायिक चरित्र के मार्ग का टोल टैक्स नही बनेगी।
       सदियों से जिन्हें जातिवाद के नाम पर कमज़ोर रखा गया है जब उन जातियों की बहन बेटियों की आबरू सरेआम ऊंची जाति के दर्प में लूट ली जा रही है, तब इन हैवानों को भी अतीक की तरह सजा क्यों नही दी जा रही है? हृदय विदारक स्थिति तब उपस्थित होती है जब प्रशासन की दबंगई से निशाचरो जैसे उसकी लाश रात्रि के अंधेरे में जला दी जाती है जिस लड़की की अस्मत लूट कर बेरहमी से इसकी हत्या गांव के दबंगों ने कर दी थी। ऐसी स्थिति में संभ्रांत होने का लबादा ओढ़े इन सुरदासों की जिह्वा पक्षाघात का शिकार क्यों हो जाती है, मुंह से दो शब्द भी नही निकल पाते!
*गौतम राणे सागर*
  राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।

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