साम्प्रदायिकता की चासनी में लिपटा वक्फ का तीर

  गिद्ध को अब मानव के लोथड़े रास आने लगे हैं, वर्तमान में सहजता से यह उपलब्ध भी होने लगे हैं। इस दौर में इंसान और इन्सानियत की हिफ़ाज़त दुरूह कार्य है। लोगों को आपस में लड़ाना अब न तो कठिन रहा, न ही दोषियों को दण्डित किए जाने की सरकार की मंशा ही है। सांप्रदायिकता भड़काना कभी अपराध रहा होगा, अब तो पुरस्कार की जगह ले चुका है। ऐसे लोगों को सम्मानित किया जा रहा है। बलात्कार के आरोपियों को सार्वजनिक रूप में महिमामंडित किया जा रहा है। हैवान-ए-सियासत का दौर है आग लगाने का हुनर आना ही चाहिए तभी तो सियासी पहचान बनेगी। गिद्ध को इंसानों के लोथड़े के लिए अधिक मेहनत की जरूरत भी नही है अब। बस कही से मांस का लोथड़ा उठाना है एक टुकड़ा मस्जिद और एक टुकड़ा मंदिर में गिरा देना है। मांस का टुकड़ा देखते ही मज़हबी जुनून में दोनों फिरके के धर्मान्ध लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो परस्पर हमला बोल देंगे। कहां किसी को फुर्सत है कि वह तहकीकात करे कि यह मांस सुअर का हैं जो मस्जिद में फेंका गया है या मन्दिर में फेंका जाने वाला मांस का टुकड़ा गाय का है? किसी ने शरारतन इसे फेंका है या किसी शिकारी पक्षी के चोंच से फिसलकर गलती से गिर गया है?
          जिस सरकार की उपलब्धियां यह हो कि उसके कार्यकाल में बने अधिकांशतः पुल निर्माण के तुरन्त बाद सूखे रेत की तरह भर भराकर गिर रहे हो या ऐतिहासिक महत्व की बनी इमारतें एक ही बरसात में टपकने लगी हो, उसे अपनी विफलता छिपाने के लिए मुद्दे को नया मोड़ देना ही पड़ेगा। रेत से बनी इमारतें बरसात की मार झेल भी कैसे सकती है? जिन मुसलमान शासकों को हमारे बीच में आतताई के रूप में प्रस्तुत कर ऐतिहासिक खलनायक साबित करने की कोशिश हो रही है कई सौ साल पहले बनाई उनकी इमारतें आज तक नही टपकी लेकिन इस हकीकत को बतायेगा कौन? रेबीज धारी मीडिया को देश का माहौल गरब गहेला करने से फुर्सत मिले तभी तो वह मसावात की ख़बर चला पायेगी! वक्फ कानून संशोधन विधेयक को इसी मनोवृत्ति के इर्द गिर्द रखकर विश्लेषण करने से स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जायेगी। वक्फ संशोधन विधेयक 2024 को साधारणतः लोग यही समझेंगे कि देश में फैली वक्फ की 9.5 लाख एकड़ जमीन अधिग्रहण (जिसकी बाज़ार में कीमत तकरीबन ₹1.30 लाख करोड़ है) करने की सरकार की योजना होगी। प्रथम दृष्टया सामान्य लोगों की इस सोच को सिरे से ख़ारिज भी नही किया जा सकता। फ़िर इस विधेयक के सियासी मायने क्या हैं? बीजेपी को ज़मीन अधिग्रहण के लिए इतनी लम्बी जहमत उठाने की जरूरत ही नही है। डराने, धमकाने के खेल में माहिर है बीजेपी सरकार। जब बड़े बड़े विभागाध्यक्ष को वह अपनी मुट्ठी में भींच कर रखने में सफल हैं तब मुतवल्ली व वक्फ बोर्ड के चेयरमैन को संतुलन में रखने में उन्हें क्या दुविधा होती?
         यह गेम बड़ा है। तमाम कोशिशों के बावजूद मुस्लिम और हिन्दू धर्मांधों को खून की होली खेलने पर उत्तेजित करने में यह सरकार विफल रही है । फिरका परस्ती के खेल पर इनकी पकड़ ढ़ीली पड़ रही है। सांप्रदायिक और जातीय उन्माद ही बीजेपी के सियासी ताकत का स्रोत है। जब यही हथियार कुंद हो जायेगा तब सत्ता में वह किस हथियार के दम पर बने रहेंगे? हर कोई जानता है यह तभी तक सुरक्षित हैं जब तक सत्ता में हैं। सत्ता से बेदखल होते ही किसी दूसरे देश में शरण लेने को मजबूर होना पड़ेगा इन्हें। बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख़ हसीना वाजिद जिन्हें तानाशाह होने का बुखार चढ़ा था विद्रोह होने पर राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन की मदद से देश से भागने में कामयाब हो पाईं है। कल्पना करें जब हमारे देश के नागरिकों को यह समझ आ जायेगा कि लोकतंत्र में बड़ी बेईमानी के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करके उद्योग जगत के पिट्ठू ने प्रधान मंत्री की कुर्सी हथिया ली है,यदि यह भी लोकतंत्र की हिफाज़त के लिए अवैध सरकार के खिलाफ़ लामबंद हो गए तब हमारा मुखौटा धारी प्रधान मंत्री अपने लिए किस देश से शरण मांगेगा?
        दरअसल वक्फ बोर्ड में संशोधन के ज़रिए पूरे देश में झूठ का एक माहौल बनाने की कोशिश होगी कि सरकार ने मुसलमानों की जमीनों को हिन्दुओं को दे दी है। अब जो भी ज़मीन मुसलमान की होगी उस पर कोई भी हिन्दू कब्ज़ा कर सकता है। परिणाम यह निकलेगा कि पूरा देश एक नए साम्प्रदायिक दंगे में झुलसने के लिए विवश मिलेगा। ऐसी स्थिति में इस विभीषिका में देश का एक एक कोना जलेगा। हर कोई हिन्दू मुस्लिम के नाम पर लड़ने को उतावला होगा। भूल जायेगा कि वह भूखा है या बेरोजगार। स्वस्थ या रूग्ण। मुसलमान ने अभी तक शान्ति और सहनशीलता दिखाई है लेकिन जब हर जगह उसकी इबादतगाह की जगह मस्जिद पर हमले होंगे क्या वह तब भी शांत रह पायेगा?
       पिछले एक दशक से लोगों को सोची समझी रणनीति के तहत बेरोजगार और अशिक्षित रखने की कोशिश की जा रही है ताकि कल यही लोग सांप्रदायिक वॉरियर के रूप में देश की शांति को भंग या उथल पुथल करने में सहायक हो सकें। इनके सहयोग से देश की एकता अखंडता को विनष्ट किया जा सके इसीलिए लोगों को भूखे रखने का निरन्तर प्रयत्न हो रहा है। इनके यहां उवाच वॉरियर कि कोई कमी है नही, किसी से भी बयान दिला देंगे कि मुसलमानों की मस्जिद तोड़कर जो कब्ज़ा कर ले वह ज़मीन उसकी हो जायेगी। कल्पना करें इन स्थितियों में देश का कितना बड़ा नुकसान होगा। संभव है कि यह रणनीति बैकफायर भी कर सकती है। यदि लोगों को यह समझ आ गया कि दरअसल पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों को सत्ता और प्रशासन में भागीदारी से प्रवंचित रखने की कूट रचना के तहत ही मनुवादियों ने इन्हें आपस में लड़कर मरने की कुत्सित चक्रव्यूह रचना की है तब क्या होगा? क्या तब वह मनुवादियों के खिलाफ़ लामबंद नही हो जायेंगे? ऐसी स्थिति में इनके क्रोध की जो वेग होगी क्या वह मनुवादियों को भस्मीभूत करने से पहले रूकेगी?
         जिस देश की सरकार साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए धर्म और धर्मनिष्ठों का सहारा लेती है, लोगों में पनप रहे भरोसे के संकट को भरोसे में तब्दील करती है, वह देश हमेशा मज़बूत और एकीकृत रहता है। इस परिस्थिति में बाहरी ताकते यदि देश को कमज़ोर करने की कोशिश करती है तो वह नाकाम ही रहती है। अफ़सोस जब खुद की सरकार ही देशवासियों के अन्दर जाति, संप्रदाय और धर्म के नाम पर उन्माद फैलाती है तब बाहरी ताकते भी योद्धोन्मद भीड़ को अपने लाभ के लिए उपयोग कर लेती हैं। संभव है कि बाहरी ताकते अपने मक़सद में कामयाब भी हो जाएं।
    पुनः विषय के हर एक पहलू पर मंथन के लिए लौटते हैं। संसद में 1995 के वक्फ कानून में संशोधन का प्रस्ताव प्रस्तावित है। सच है कि कि यह विधेयक अभी संयुक्त संसदीय समिति के पास विचाराधीन लम्बित है।
इस कानून का नाम है एकीकृत वक्फ प्रबंधन, सशक्तिकरण, गुणवत्ता और विकास धारा 1995 जिसके माध्यम से वक्फ बोर्ड समितियों को कई शक्तियां दी गई थी। जो बीजेपी सरकार को रास नही आ रही है। यह संसद में संशोधन विधेयक लेकर आई है। अब प्रश्न खड़ा होता है कि क्या बीजेपी वाकई 1995 के वक्फ कानून में अभी परिवर्तन करना चाहती है या फ़िर अभी सियासी लाभ हानि भांपने की गरज से ही संसद की प्रयोगशाला में परीक्षण के लिए उपस्थित किया गया है यह विधेयक? साल भर के अन्दर कई राज्यों के चुनाव होने हैं। खासतौर पर हरियाणा, महाराष्ट्र जहां 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। लोकसभा चुनाव परिणामों पर दृष्टि डालने से विधानसभा चुनावों में हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी की सत्ता से विदाई तय है। शायद नुकसान की भरपाई के लिए वक्फ बोर्ड अधिनियम में संशोधन विधेयक पेश किया गया है। शिव सेना उद्धव गुट के सांसदों ने जिस तरह लोकसभा से वॉकआउट किया है, बीजेपी की पूरी कोशिश होगी इस आपदा को वह अवसर में तब्दील कर सके और माहौल अपने पक्ष में बना सके।
       वर्तमान राजनीतिक समीकरण के हिसाब से हरियाणा में जाट कांग्रेस के पक्ष में लामबंद है। बीजेपी को हार का डर अभी से सताने लगा है। उन्हें ज्ञात हो गया है कि दुष्यन्त चौटाला नामक प्यादा शतरंज की बिसात बिछने से पहले ही पिट चुका है। अभय चौटाला और बहन मायावती नामक नवीन प्यादे की उन्होंने तलाश ज़रूर की है परन्तु लगता नही कि यह प्यादे भी चौसर की आखिरी लाईन तक यात्रा तय कर पायेंगे, वजीर बनने की काबिलियत इनमें दिखती भी नही है। हर पिटते हुए मोहरे को असहाय स्थिति में देखते रहने को वर्तमान बीजेपी बाध्य नही रह सकती। वजह साफ़ है इसकी रणनीति अब नागपुर कार्यालय में कम बनती हैं और उद्योग घराने में अधिक। उद्योग घरानों की एक ही रणनीति होती है, खुद का वर्चस्व। इसके लिए चाहे जो कुछ भी करना पड़े वह कभी नही हिचकेंगे। वह सिर्फ़ एक ही नैतिकता का अनुसरण करते हैं येन केन प्रकारेण अपने वर्चस्व की हिफाज़त करना।
      प्रतीत होता है आगामी विधानसभा चुनावों में हारी हुई बाज़ी को जीत में बदलने के उद्देश्य से उद्योग घरानों ने वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक की रूप रेखा तैयार कर अपनी जर ख़रीद सरकार के दफ़्तर को हिदायत के साथ अग्रसारित किया है कि वह इससे एक आपदा खड़ी कर अपने लिए अवसर तलाश लें। विधानसभा चुनावों में जीत की उम्मीद की आस बीजेपी को अब अपने काबिलियत पर नही अपितु विपक्ष के गलत लिए गए निर्णय पर टिकी है। इन्हें भरोसा था कि कांग्रेस वक्फ मुद्दे पर कोहराम मचाएगी और बीजेपी को ध्रुवीकरण का मौक़ा मिल जायेगा। चुंकि अब तो मोदी की गारंटी की भी हवा निकल गई है तब किस रथ पर सवार होकर वह चुनाव लड़ते! केंचुआ ने एक बार फिर विष्ठापान किया है। चारों राज्यों का चुनाव एक साथ घोषित करने के बरक्स दो राज्यों का चुनाव घोषित कर फिर विष्ठा में घुसकर अपना मुंह छिपा लिया है। शायद खा पीकर हृष्ट पुष्ट होने चला गया है।
     देश के नागरिकों; सतर्क रहें! पाकिस्तान धार्मिक उन्माद में बर्बाद हो चुका है। श्री लंका को धार्मिक उन्माद ने तहस नहस कर दिया, तख्ता पलट हो चुका है। बांग्लादेश की तानाशाह को अपने प्राणों की हिफ़ाज़त के लिए देश छोड़कर भागने के लिए राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन के सामने गिड़गिड़ाकर प्राणों की भीख मांगनी पड़ी है। कहीं हमारे देश को भी यही दंश न झेलना पड़े। अपेक्षा यही है कि मेरी आशंका निर्मूल सिद्ध हो और देश की संप्रभुता, राष्ट्र की एकता अखंडता अक्षुण्ण रहे!
*गौतम राणे सागर*
  राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।

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