अन्याय के न्यायमूर्ति......

 उच्चतम न्यायालय के जिन सात अन्याय की राह पर अग्रसर न्यायमूर्तियों ने अनुसूचित जाति/ जनजाति के वर्गीकरण का अधिकार राज्य सरकारों को सौंपा है, धर्माधिकारी बनने की कुचेष्टा की है उनकी पृष्ठभूमि समझना अनिवार्य है। इन्हें ऐसा लगता है कि यह न्याय कर रहे हैं या अपनी साज़िश को न्याय के आवरण में परोसने की कुत्सित मानसिकता प्रदर्शित कर रहे हैं विभेद करने में इनसे त्रुटि हुई है। वाक़ई हमारे देश की विडंबना ही है कि जिनकी प्रज्ञता पर हम न्याय करने की ज़िम्मेदारी सौप रहे हैं उनकी अल्पज्ञता मनीषा में कब तब्दील हुई ,जानने का प्रयास ही नही किया?जब अवर और सत्र न्यायालय के मजिस्ट्रेट/ न्यायाधीश के चयन के लिए प्रदेश प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिये चयन करते हैं तब उच्च और उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्तियों का चयन नामित प्रक्रिया से संपादित होना कितना उचित-अनुचित है, कौन विश्लेषण करेगा?
       ज़िले की कानून व्यवस्था ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस कप्तान के भरोसे इसलिए छोड़ा जाता है कि उन्होंने संघ लोकसेवा आयोग की सबसे कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी कठिन प्रशिक्षण प्रक्रिया से गुजरे हैं. इसके बावजूद एक आईएएस को ज़िले की जिम्मेदारी मिलने में तक़रीबन सात साल लग जाते हैं. फ़िर भी उनके ऊपर उनके कार्यों की समीक्षा के लिए कई परत की उच्च अधिकारियों की व्यवस्था रहती है ताकि त्रुटि की गुंजाईश न रहे. अफ़सोस! उच्च या उच्चतम न्यायालय में गुणवत्ता की परख के बिना ही न्याय करने की बड़ी जिम्मेदारी देने के पीछे का क्या तर्क है? ग़ज़ब ढाता है इनका फ़रमान, कि यदि इनके आदेशों का अनुपालन नही किया गया तो वह कृत्य न्यायालय की अवमानना की संज्ञा में आयेगा। हमारे पास कोई विकल्प भी नही बचता कि हम विश्लेषण कर सकें कि न्यायालय का पारित आदेश जब लिखाया जा रहा था तब उस व्यक्ति की मन:स्थिति सन्तुलित थी या नही?
      जिन न्यायमूर्तियों ने यह आदेश पारित कर अपनी मनीषा का स्वांग रचा है, उनकी मेधा की भी विवेचना कर लेते हैं। क्या इन लोगों ने उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की कुर्सी तक पहुंचने में अपने किसी विशेष योग्यता का प्रदर्शन किया है या फिर भाई भतीजावाद व पारिवारिक पृष्ठभूमि इन्हें यहाँ तक लेकर आई है। यदि कहा जाए कि धनंजय यशवन्त चन्द्रचूड़ भारत के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर अपनी योग्यता नही अपितु अपने पिता के पुत्र होने के कारण यहाँ विराजमान हैं तो अतिरंजित कथन नही होगा। इनके पिता यशवन्त विष्णु चंद्रचूड़ देश के सबसे अधिक समय तक रहने वाले भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। जिनका कार्यकाल 22 फरवरी 1978 से लेकर जुलाई 1985 तक था। धनंजय को 29 मार्च 2000 को आदर्श सैन आनंद ने न्यायाधीश के लिए नामित किया था। धनंजय के पिता के कर्ज़ को जो उतारना था उन्हें। सनद रहे कि आनंद को न्यायाधीश बनाने में यशवन्त विष्णु चंद्रचूड़ की बड़ी भूमिका थी। 
    धनंजय पेशवाई संस्कृति के बहुत बड़े समर्थक हैं। उसी नस्ल का लहू इनकी धमनियों में प्रवाहित हो रहा है। 1जनवरी 1818 को हुए कोरेगांव की घटना जिसमें 500 महारों ने मिलकर पेशवा के 28000 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था, उस विद्रोह की जद में इनकी भी वंशावली थी।इतिहास के पन्नों में दर्ज प्रमाण बयान करते हैं कि धनंजय की पुश्तैनी कोठी आज भी कोरेगांव में खंडहर के रूप में मौजूद है। अनुसूचित जातियों के खिलाफ दिये इस निर्णय में धनंजय की पुश्तैनी टीस साफ झलकती है।
       भूषण रामकृष्ण गवई; आर एस गवई के पुत्र हैं। इनके पिता जब महाराष्ट्र विधान परिषद के उपाध्यक्ष थे तब महाराष्ट्र में एक वीभत्स घटना घटी। बाबूराव गवई गाँव के एक व्यक्ति की बेटी के साथ दबंगों ने सामुहिक बलात्कार किया। वह गर्भवती हो गई, बाबूराव और उसके छोटे भाई ने जब इस घटना का विरोध किया तब दबंगों ने दोनों भाइयों की मार मारकर आंखे निकाल दी। इनके पिता मूकदर्शक बने रहे। बाद में इनके पिता विधान परिषद के अध्यक्ष और गवर्नर भी बने। महाराष्ट्र में आरपीआई का सत्यानाश करने में आरएस गवई की महत्पूर्ण भूमिका थी। न्यायमूर्ति वी एन खरे और बड़े गवई की खूब छनती थी, इन्हीं के नामित करने पर भूषण राम कृष्ण 14 नवंबर 2003 को बॉम्बे हाई कोर्ट के जज बन गए। कॉलेजियम पद्धति में मुख्य न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी को घोषित कर सेवानिवृत्त होता है। चंद्रचूड़ के बाद संजीव खन्ना मुख्य न्यायाधीश होंगे उनके बाद कृष्ण के भूषण गवई के मुख्य न्यायाधीश बनने का नंबर है। प्रतीत होता है अपने मुख्य न्यायाधीश बनने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ही समाज के बड़े हितों पर इन्होंने प्रतिघात करने का समझौता किया है। 
       विक्रमनाथ को रमेश चंद्र लाहौटी ने नामित किया था, 24 सितंबर 2004 को वह न्यायाधीश बन गए। मन में रस्साकशी इसी बात की चल रही है आख़िर हमारे देश में चल क्या रहा है? उच्च/ उच्चतम न्यायालय न्याय देने के स्थान हैं या फिर नस्लवाद की संस्कृति की संरक्षा के उद्गम? जिस तरह आरएसएस प्रमुख अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते हैं उसी तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश को भी उत्तराधिकारी के रूप में नामित किया जाना कैसे उचित हो सकता है?जहां न कोई चयन का कोई मापदंड है न ही गुणवत्ता का, वहां से पास किए गए सनक को मानने की हमारी मजबूरी, यह कैसी व्यथा है?
      पंकज मित्तल को योगेश कुमार सब्बरवाल ने नामित किया. 7 जुलाई 2006 को यह न्यायाधीश बन गए। नामित प्रक्रिया में शामिल होने की इनकी योग्यता यह थी कि यह न्यायमूर्ति नरेंद्र नाथ मित्तल के पुत्र थे। आरएसएस और उच्च न्यायालय के ऑफिस होल्डर के चयन प्रक्रिया में कोई अन्तर ढूँढ कर बताएं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस तरह आरएसएस नस्लवाद की रक्षा कर रहा है उसी तरह कॉलेजियम भी नस्लवाद की संरक्षा में कार्य कर रही है। यह टिप्पणी कटु हो सकती है परन्तु असत्य कदापि नही।
      सतीश चंद्र शर्मा को के जी बालकृष्णन ने नामित किया था। 18 जनवरी 2008 को यह न्यायाधीश बने। इनके पिता डॉक्टर बी एन शर्मा बरकतुल्लाह विश्व विद्यालय के कुलपति थे। न्यायालयों में इनका बड़ा सम्मान था। उसी सम्मान ने बेटे को न्यायमूर्ति बनाने में कामयाबी हासिल की।
    मनोज मिश्रा और बेला माधुर्य त्रिवेदी दोनों को एस एच कपाड़िया ने नामित किया था। दोनों ने 2011 में अपना अपना कार्य भार ग्रहण किया। मनोज मिश्रा इलाहाबाद उच्च न्यायालय से तो बेला त्रिवेदी ने गुजरात से अपने न्यायाधीश की यात्रा शुरू की। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि बेला त्रिवेदी ने अपने आदेश में यह कहा कि एससी/एसटी के आरक्षण में कोई छेड़खानी उचित नही है। बेला त्रिवेदी उच्च न्यायालय की न्यायाधीश नियुक्त होने से पहले गुजरात की मोदी सरकार में कानून सचिव थी। 
          गुजरात उच्च न्यायालय में रहते हुए इन्होंने 1अगस्त 2024 को लिखे अपने आदेश से बिल्कुल विपरीत नजरिया प्रस्तुत किया था। उस वक़्त इन्होंने जनहित अभियान बनाम केन्द्र सरकार के केस में सलाह दिया था कि अछूत, आदिवासी व अन्य पिछड़ी जातियों को मिलने वाला आरक्षण समाप्त कर दिया जाना चाहिए। उपर्युक्त वर्णित मेरी टिप्पणी यहाँ बिल्कुल फिट बैठती है। गुणी पाठक स्वतः निष्कर्ष पर अग्रसर हो सकते हैं कि एक न्यायाधीश की मनोदशा सर्वथा एक सी स्थिर नही रह सकती। उसके विचार चंचल हैं बदलते रहते हैं, फलतः 1अगस्त 2024 के उच्चतम न्यायालय के आदेश का प्रबल तौर पर प्रतिकार किया जाना चाहिए ताकि इन्हें स्वस्थ मन से अपने आदेश पर पुनर्विचार करने को बाध्य होना पड़े। एक बात तो सार्वभौमिक रूप से सत्य है कि यह आदेश नस्लवादी मुख्यालय से आया था जिस पर इन न्यायाधीशों ने सिर्फ अपनी चिड़िया बैठाई है।
*गौतम राणे सागर*
  राष्ट्रीय संयोजक, 
संविधान संरक्षण मंच।

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