पूना पैक्ट का नतीजा है पाकिस्तान

    यदि बाबा साहब डॉ अम्बेडकर गांधी की कुटिलता पर अविश्वास कर पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर न करते, तब भारत का विभाजन भी न होता। भारत विभाजन के लिए मोहम्मद अली जिन्ना को कटघरे में खड़ा करने की मुहिम एक निर्दोष को सज़ा दिलाने की कवायद है। मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की मांग जिन्ना ने नही अपितु विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में रखी। Hindutva; Who is a Hindu? की अपनी थ्योरी में रखी जिसमें उन्होंने कहा कि हम हिन्दू राष्ट्र है, मुस्लमान राष्ट्र अलग है। इसी मनोवृत्ति को गति देते हुए माधव सदाशिव गोलवरकर ने 1939 में अपनी पुस्तक We Our Nationhood Defined में दो राष्ट्र की थ्योरी को कट्टरता प्रदान की। प्रतिकार और तालियों की गुंज सुनने के आतुर जिन्ना ने 22 मार्च 1940 को लाहौर कांफ्रेंस में अलग पाकिस्तान की मांग उठाई ज़रूर थी लेकिन दिल से वह कभी नही चाहते थे कि भारत के दो टुकड़े हो।
        जिन्ना अपनी सियासी भविष्य को लेकर बड़े संजीदा और चैतन्य थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि जिस तरह डॉ अम्बेडकर बार बार पूना पैक्ट रद्द करने की मांग उठा रहे है संभावना प्रबल है कि यह समझौता रद्द हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो 33%मुसलमान और 22.5% अनुसूचित जाति/जनजाति मिलकर देश में बहुमत हासिल कर सकते हैं। जिन्ना, नेहरू की फितरत से  बख़ूबी परिचित थे उनके हर हथकंडे का प्रतिकार करने का मार्ग भी तलाश लेते थे परन्तु गांधी जी के दोहरे चरित्र को भांप पाने में जिन्ना हमेशा विफल रहे। 24 सितम्बर,  1932 में डॉ अम्बेडकर और गांधी के बीच में जब पूना पैक्ट हुआ था उस वक्त जिन्ना लंदन में थे। पूना पैक्ट से हर्षोल्लासित कांग्रेसी, आरएसएस और हिन्दू महासभा के लोगों ने दर्प में कहना शुरू कर दिया था कि जिस तरह से हमने दलितों को मिले कम्यूनल अवॉर्ड को पूना पैक्ट के जरिए ख़ारिज कर उनके सारे अधिकारों को छीन लिया है उसी तरह मुसलमानों के अधिकारों को भी एक दिन छीन लेंगे। स्टैनली वॉल्पर्ट ने अपनी पुस्तक *जिन्ना ऑन पाकिस्तान* में तथ्यों के ख़ोज पर सारे दस्तावेज़ के साथ गांधी और नेहरू की पूरी सच्चाई प्रस्तुत किया है।
      यकीनन, इस दृष्टांत से मुसलमानों में भय समा गया था, वह सोचने पर मजबूर थे कि 22.5% आबादी वाले बड़े समाज, खासतौर पर बाबा साहब डॉ अम्बेडकर जैसे चोटी के नेता के रहते हुए भी जब यह कुटिल लोग उनके अधिकार छीन सकते हैं तब संभव है यह सब हमें भी निर्वाचन व अन्य अधिकारों से वंचित करने की साज़िश करें। लिहाजा वह पृथक देश के अस्तित्व पर सोचने ज़रूर लगे थे। समझौते के समय बाबा साहब डॉ अम्बेडकर से गांधी ने वादा किया था कि यदि हिन्दू समाज को अपनी गलती सुधारने का एक मौका दिया जाए तो हम पांच साल के अन्दर देश से जाति पात को जड़ से उखाड़ फेकेंगे। जड़ से उखाड़ फेंकना तो दूर की बात थी गांधी ने तो जातियों को ख़त्म करने के बरक्स वर्णाश्रम के नाम पर उन्हें बढ़ाने के लिए फेविकोल के मज़बूत जोड़ का मनोयोग ही प्रदर्शित किया।
    सावरकर को दो राष्ट्र की थ्योरी का ज्ञान कहां से आया? विवेचना होना आवश्यक है। सुरागरसी से ख़बर मिली की 1875 में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने *सत्यार्थ प्रकाश* शीर्षक कि जो पुस्तक लिखी वहां उद्धृत किया है कि आर्यों का राष्ट्र अलग,दस्यु का राष्ट्र अलग और म्लेच्छ का राष्ट्र अलग है। नागवंशी यहां के मूलनिवासी है उन्हीं को दयानन्द सरस्वती ने दस्यु कहा। मुसलमानों को उन्होंने म्लेच्छ की संज्ञा दी। इसी थाती को सावरकर ने सहेज कर रखी, इस मुद्दे को नफ़रत से बुझे तीर की तरह संवारा, तीक्ष्ण बनाया दो राष्ट्र की थ्योरी की आधार शिला रखी। केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 1923 में रत्नागिरी जाकर सावरकर से मुलाकात की। तय रणनीति के अनुसार 1925 में आरएसएस का गठन किया। आरएसएस गठन में पर्दे के अग्र भाग पर यह लोग मंच पर अपनी भूमिका निभा रहे थे लेकिन आरएसएस के अस्तित्व के पार्श्व गायक के रूप में गांधी और नेहरू ही थे। दो राष्ट्र की थ्योरी का जो मधुर संगीत बज रहा था वह ध्वनि बापू और चाचा ने ही तैयार की थी।
        जिन्ना 1913 में मुस्लिम लीग के नेता के रूप में स्थापित हो चुके थे। हिन्दू मुस्लिम एकता कायम करने के दृष्टिगत 1916 में कांग्रेस , मुस्लिम लीग के बीच लखनऊ समझौते के नाम पर एक सहमति पर हस्ताक्षर हुए। जिन्ना ने इस बीच जन सामान्य में ऑल इंडिया होम रूल लीग के महत्वपूर्ण व्यक्तित्व का ओहदा हासिल कर लिया था। उनके समक्ष गांधी और नेहरू का कद कमतर था। ईसाई कभी भी मुसलमान नेतृत्व को बर्दाश्त नही कर पा रहा था, लिहाजा जिन्ना की बढ़ती लोकप्रियता बर्तानवी हुकूमत को रास नही आ रही थी। बड़े मियां तो बड़े छोटे मियां सुभानअल्लाह। आरएसएस, हिन्दू महासभा और कांग्रेस अभी जिन्ना से ही परेशान थी अब तो भारतीय राजनीति में एक और तूफ़ान का पदार्पण हो चुका था जिन्हें हम बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर के नाम से जानते हैं।
     बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने दयानन्द सरस्वती और सावरकर पर हमला बोलते हुए कहा कि जिसे आज आर्यावर्त के नाम से प्रचारित किया जा रहा है, नागवंशी उस आर्यावर्त के मूलनिवासी हैं इनकी संस्कृति आर्यों की संस्कृति से बहुत ही अच्छी है। इस विषय पर वृहद स्तर पर चर्चा करने की आवश्यकता है। यथार्थ पर चर्चा करने से मनुवादी ताकते हमेशा बचने की कोशिश करती हैं, फलतः गठजोड़ का रूप लेते इस जोड़ी से ब्राह्मणवादी ताकतों को अक्सर यह डर सताने लगा था कि कहीं ऐसा न हो कि यदि यह दोनों एक हो गए तब तो हमारी सत्ता के परखच्चे उड़ जायेंगे। इस यथार्थ से इंकार नही किया जा सकता है कि शुरूआती दौर में गांधी और नेहरू देश के विभाजन के पक्ष में नही थे। गांधीजी अन्तिम समय तक नही चाहते थे कि देश का विभाजन हो लेकिन विभाजन की आधारशिला भी गांधी ने ही रखी थी। यदि पूना पैक्ट न हुआ होता और डॉ अम्बेडकर से किए गए वादे से गांधी न मुकरते तब जिन्ना देश बंटवारे की बात शायद 22 मार्च 1940 को लाहौर कांफ्रेंस में दिए गए अपने बयान से परहेज़ भी कर जाते!
    1932 में जब पूना पैक्ट हुआ और दलितों के अधिकार छीन लिए गए तब जिन्ना लंदन में थे। कांग्रेस, आरएसएस और हिन्दू महासभा के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि जिस तरह कम्यूनल अवॉर्ड से हम लोगों ने दलितों के अधिकारों को निकाला है उसी तरह हम मुसलमानों के अधिकारों को भी कुटिलता से छीन लेंगे। यकीनन मुसलमानों का भयभीत होना स्वाभाविक था कि जब 22.5% जैसी बड़ी आबादी का अधिकार महान लीडर बाबा साहब डॉ अम्बेडकर के रहते यह छीन सकते हैं तब यह हमारे निर्वाचन और अन्य अधिकार भी छीन सकते हैं। स्टेनली वॉल्फरी ने अपनी 
         22 मार्च 1947 को लॉर्ड लुईस माउंटबेटन अपनी नाज़ुक नाक नक्स वाली पत्नी एडविना के साथ जैसे ही भारत की धरती पर कदम रखा नेहरू जी हाव भाव बदलने लगे। फरवरी 20, 1947 को क्लीमेंट अट्टली के नेतृत्व ने बनी समिति ने किंग जॉर्ज षष्ठम को सलाह दिया कि माउंटबेटन को भेज कर शीघ्रति शीघ्र सत्ता का हस्तांतरण कर ब्रिटिश सरकार वापस लौट आए। माउंटबेटन को यह भी हिदायत दी गई थी कि पूरी कोशिश यही रहनी चाहिए कि सत्ता हस्तांतरण का जो फॉर्मूला ब्रिटिश पार्लियामेंट ने तैयार किया है उसी तरह सब ठीक से निपट जाना चाहिए। यदि किसी बदलाव की जरूरत पड़े तो परिस्थितियों के अनुसार रणनीति परिवर्तित की जा सकती है। प्रलेख में इसी तरह की हिदायत थी परन्तु मौखिक फरमान था कि किसी भी तरह भारत एकत्रित नही रहना चाहिए, उसके कम से कम दो टुकड़े होने चाहिए। भारत पाकिस्तान को आज़ाद करते समय ही श्री लंका, मलाया, मैडगास्कर, वर्मा इत्यादि देशों को भी आज़ाद कर दिया गया था।
       बर्तानवी हुकूमत को बेहतर तरीके से ज्ञात था कि नेहरू देश विभाजन पर रोड़ा बन सकते हैं इसीलिए एडवीना माउंटबेटन को माउंटबेटन के साथ ही भेजा गया था। नुसख़ा कारगर रहा। 3 जून 1947 को माउंटबेटन की योजनानुसार भेजा गया इन्डियन स्वतंत्रता अधिनियम  5 जुलाई को पारित कर दिया गया। जिस पर महाराज की 18 जुलाई 1947 को सहमति भी मिल गई। माउंटबेटन को अपनी पत्नी पर इतना भरोसा था कि उन्होंने इण्डिया विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस वर्किंग कमेटी के प्रस्ताव से पहले ही भेज दिया था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के प्रस्ताव में गांधी शायद रोड़ा बन जाते इसलिए उनके दिल्ली से बहुत दूर जाने का इन्तजार किया जा रहा था। यह मौक़ा नेहरू जी को तब मिला जब गांधी नवाखली दंगों को रोकने के लिए दिल्ली से बहुत दूर थे।
      कांग्रेस वर्किंग कमेटी में देश विभाजन के लाए गए प्रस्ताव का मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खान और आचार्य कृपलानी ने जम कर विरोध किया। कृपलानी का विरोध पाकिस्तान के अस्तित्व का नही था। उनका रोष सिर्फ इतना था कि बलूचिस्तान में जो 5 लाख हिन्दू हैं वह पाकिस्तान के हिस्से चले जायेंगे।
अंततः प्रस्ताव 18-3 से पास हो गया। गांधी जी को जैसे ही नवाखाली में ख़बर मिली कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में इण्डिया पाकिस्तान बंटवारे का प्रस्ताव किया गया है वह आनन फानन में नवाखली से निकले। उनके दिल्ली पहुंचने से पहले ही 15 जून 1947 को कांग्रेस का प्रस्ताव एडवीना के पास पहुंच गया था, वाया एडवीना यह प्रस्ताव माउंटबेटन ने ब्रिटिश पार्लियामेंट को टेलीग्राम कर दिया था। 7 अगस्त 1947 को जिन्ना कराची के लिए निकल गए। 11 अगस्त 1947 को आहूत संविधान सभा की बैठक में अध्यक्ष चुन लिया गया। तीन दिन बाद 14 अगस्त को वह पाकिस्तान के गवर्नर जनरल की शपथ ले ली। इस तरह 14-15 अगस्त की मध्य रात्रि ब्रिटिश इण्डिया की सत्ता समाप्त हो गई। माउंटबेटन को मार्च 1948 तक का समय निर्धारित कर हिदायत दी गई थी भारत को स्वतंत्र करने की प्रक्रियाएं तय सीमा के अन्दर समाप्त हो जानी चाहिए। इस बीच ध्यान रखा जाए कि हमारा न तो अधिक नुकसान हो और न ही हमारे दामन पर बदनामी की कोई छीटें पड़े।
        पाकिस्तान के अलावा भारतीय राजनीति में पूना पैक्ट का दुष्प्रभाव कहां कहां पड़ा? विस्तार से अग्र भाग में विश्लेषण करेंगे।
*गौतम राणे सागर*
   राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।

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