शक्ति का संतुलन ज़रूरी है:गौतम राणे सागर

शक्ति का संतुलन ज़रूरी है
    आग को पानी का डर होना चाहिए अन्यथा पूरी दुनियां जल कर खाक हो जाएगी। पिछले एक दशक से शक्ति का संतुलन बिगड़ गया है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव यह हुआ है कि अब सरकार की सेहत पर किसी भी तरह के आन्दोलन से कोई फ़र्क नही पड़ता। यह नया प्रयोग है; सरकार की नीतियों के खिलाफ़ सड़कों पर उतरने से अब सरकार दबाव में नही आती। अपितु सरकार की नीतियों से असहमति की दशा में अब देश की जनता सड़क पर उतरने का जोख़िम नही लेना चाहती है। पहले जनता की आवाज़ कुचलने के लिए सरकार की साजिशों को दमनकारी नीति मानी जाती थी। अब इस हथकंडे को सरकारी अमन चैन का पैग़ाम बना दिया गया है।
       बदल गई है नीतियां। बदल गए हैं शब्दों के भाव। जो जनता पहले लोकतंत्र के हथकंडे से निरंकुश सरकार को घुटने पर ला देती थी अब वही जनता बचाव की मुद्रा में है। यदि जनता ने आन्दोलन करने का मन बनाया या फ़िर आन्दोलन की विभीषिका में ख़ुद को धकेला तब सरकार द्वारा पोषित लफंगों को आन्दोलन में शामिल कराकर शांति पूर्ण आन्दोलन को विप्लवकारी बनाया जायेगा फ़िर उसे उग्र किया जाएगा। पटकथा अनुसार तोड़ फोड़ की घटनाओं का मंचन भी होगा, बेकाबू होती भीड़ को कंट्रोल करने के नाम पर सरकारी कार्यवाही का हर तरफ़ ताण्डव होगा। गोलियां चलाई जाएंगी: भीड़ को तितर बितर करने के लिए हवा में नही अपितु लक्ष्य निर्धारित कर आंदोलन के मुखिया को जीवन से मुक्त करने के लिए ताकि आन्दोलन को कुचला जा सके!आंदोलन में शामिल लोगों को भयभीत करने के लिए कि उन्हें एक कठोर सबक मिल जाए कि यदि उन्होंने भविष्य में आंदोलन के ज़रिए सरकार को झुकाने की सोची तो उनका भी यही हश्र होगा।
      यह सरकार का प्रत्यक्ष रौद्र रूप है, परोक्ष रूप से सरकार संरक्षित लूंठो की टीम द्वारा आन्दोलन को देश के विभाजन की साज़िश करार किया जायेगा और आंदोलनकारियों को देशद्रोही साबित कर दिया जाएगा। लोकतन्त्र में सरकार संरक्षित लूंठो को नए भारत में एक नया रोज़गार उपलब्ध करा दिया गया है। ये दिन भर घूमकर घूमकर और चिल्लाकर चिल्लाकर बयान जारी करते फिरेंगे कि कहां है बेरोजगारी, कहां है ग़रीबी? व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान बांटा जाएगा देश में इतनी कारें, बाइक्स बिक रही है। जीएसटी संग्रह प्रतिमाह बढ़ता जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समाचार वाचक चटखारे लेकर और मिर्च मसाले के साथ इनको नए कलेवर के साथ प्रसारित करेंगे जैसे यह वर्ल्ड बैंक के प्रेसीडेंट हो।

     भारतीय लोक व्यवस्था में नियुक्त लोक सेवक जो इस समय ख़ुद को अफसरशाही के आवरण में ढाल चुके हैं वह भी सरकार के पक्ष में प्रशिक्षित बन्दर जैसे खड़े हैं, जबकि उन्हें संविधान और देश के नागरिकों के हितों के प्रति ख़ुद को समर्पित करना चाहिए। वास्तविकता कोसों दूर है लोकतन्त्र में लोक त्रस्त है, पीड़ित है, मंहगाई की मार से उनका पेट पीठ से चिपका पड़ा है। हताश है; अपनी पीड़ा किसे सुनाएं। कौन सुनेगा उनकी? नेता और अफ़सर दो ही की सुनते हैं या तो थैली शाह या फ़िर एकीकृत जनता का अभेद्य सैनिक दल। जनता बंटी हुई है; जातियों, संप्रदाय, धार्मिक खेमों, अंध विश्वास और धार्मिक उन्माद में। एकत्रित होने की संभावना कम है 
        अफसरों को मालूम है कि उन्हें मलाईदार पदों पर सरकार पोस्टिंग देगी न कि संविधान। अफसरशाही को जैसे यह इल्हाम हो गया है कि सरकार की हां में हां मिलाने पर मौज ही मौज है, संविधान के मुताबिक़ जनता के पक्ष में खड़े होने पर नैतिक बल प्रदर्शित करना पड़ेगा। जब इनके शरीर में पाई जाने वाली 206 हड्डियों में से एक भी नैतिक हड्डी है ही नही, तब यह नैतिक बल लायेंगे कहां से? नेताओं और अधिकारियों के आचरण में नैतिकता का होना तो बहुत दूर की कौड़ी है ये दोनों कल्पना में भी किसानों, मज़दूरों, कमजोरों, दलितों, पिछड़ों और मुस्लिमों के खिलाफ ही साज़िश की जाल बुनते रहते हैं। नेताओं को अपनी कुर्सी और अधिकारियों को अपनी मलाईदार पोस्टिंग और स्वतः का परिवार ही पसन्द हैं। परिवार से आशय सिर्फ़ पत्नी से उत्पन्न संतानों तक ही सीमित है,भाई और बहनों के परिवार से कोई सरोकार नही है इनका।
       किसानों का आन्दोलन कुचला जाना, उन्हें देश द्रोही संज्ञा से नवाजना, विपक्षियों को पीएमएलए के फर्जी मामलों में फंसा कर जेल के पीछे रखने, नौजवानों को बेरोजगार रखना, हताश होने पर सांप्रदायिकता के लिए उन्हें उत्प्रेरित करना नए चलन का लोकतन्त्र है। सच है कि भारत देश के गुलाबी फ़ाइलों में सत्ता का चारित्र लोकतांत्रिक है जिसे अंग्रेज़ी में डेमोक्रेसी कहते है,परन्तु वास्तविक तौर पर इस देश में kakistocracy जिसे हिन्दी में चोरों का शासन कहते हैं। चुनावी मैदान हमेशा नारा उछलता है कि वह ग़रीबों के हित में कुर्बान होने वाले लोग हैं, सत्ता में आते ही अमीरों की नाक में नकेल डाल देंगे। जब गरीबों की अमीरों से फैसलाकुन जंग में मंदिर और मस्जिद के मसाइल खड़े हो जाएं तब समझ जाना चाहिए कि वह नेता दरअसल में अमीरों के पक्ष में पूरी श्रद्धा और मनोभाव से खड़ा है, गरीबों का नाम इस लिए उछाल रहा है क्योंकि वह ग़रीबों की हत्या करने को उद्यत है, श्रद्धांजलि देने का रिहर्सल कर रहा है।
           देश के किसान, मज़दूर, ग़रीब महिला, छात्र युवक सभी इन संस्थागत चोरों के हथकंडे से त्रस्त हैं। वज़ह साफ़ है देश की सत्ता में संतुलन ख़त्म हो चुका है। सभी पीड़ित पक्षों को देश हित में देश की सत्ता में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। सत्ताधारी लोग अग्नि हैं, ज्योति होना आवश्यक भी है परन्तु शक्ति के असंतुलन से यही ज्योति धधक कर ज्वालामुखी बन जाती है। दावानल में उद्योग घरानों को छोड़कर शेष को भस्म कर देने को आतुर रहती है। उद्योगपति देश में शक्ति के असंतुलन के हमेशा ख्वाहिशमंद रहते हैं ताकि पूंजी केंद्रीकृत रहे। पूंजी का विकेन्द्रीयकरण उद्योगपतियों को कभी रास नही आता। मुफ़्लिसी में जीवन काट रहे देश के नागरिकों के हितों की रक्षा तब तक संभव नही है जब तक कि शक्ति का संतुलन स्थापित न हो। लब्बोलुआब देश की सरकार मज़बूत नही मजबूर होनी चाहिए।
       किसान, मज़दूर, नौजवान, ग़रीब, स्त्री, छात्र सभी की ज़िन्दगी दुश्वार है, उफ़ इनकी ग्लानि को भी कुचलने के कुचक्र में इन नेताओं की शोला बयानी उन्हें भस्म करने को लालायित है। सत्ता के संतुलन हेतु नेताओं और अफसरशाही के शोले बयानी पर मूसलाधार बारिश होनी चाहिए। देश की युवा पीढ़ी के चेहरों पर जो हताशा के भाव हैं उन्हें हटाने का प्रयत्न होना चाहिए, उन्हीं में यह जज़्बा है जो सरकार और अफ़सरों के लहज़े को बदल सकते हैं, शक्ति का संतुलन स्थापित कर सकते हैं।
*गौतम राणे सागर*
  राष्ट्रीय संयोजक,
संविधान संरक्षण मंच।

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